शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-17


मूल स्लोकः

अविनाशि तु तद्विध्दि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2.17।।




English translation by Swami Sivananda
2.17 Know that to be indestructible, by Which all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable.


English commentary by Swami Sivananda
2.17 अविनाशि indestructible, तु indeed, तत् That, विद्धि know (thou), येन by which, सर्वम् all, इदम् this, ततम् is pervaded, विनाशम् destruction, अव्ययस्य अस्य of this Imperishable, न not, कश्चित् anyone, कर्तुम् to do, अर्हति is able.Commentary -- Brahman or Atman pervades all the objects like ether. Even if the pot is broken, the ether that is within and without the pot cannot be destroyed. Even so, if the bodies and all other objects perish, Brahman or the Self that pervades them cannot perish. It is the living Truth, Sat.Brahman has no parts. There cannot be either increase or diminution in Brahman. People are ruined by loss of wealth. But Brahman does not suffer any loss in that way. It is inexhaustible. Therefore, none can bring about the disappearance or destruction of the Self. It always exists. It is always all-full and self-contained. It is Existence Absolute. It is immutable.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता ।।2.17।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अविनाशि तु तद्विद्धि -- पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत्की बात कही थी, उसमेंसे पहले सत्की व्याख्या करनेके लिये यहाँ तु पद आया है।' उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ ' -- ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्वको परोक्ष बताया है। परोक्ष बतानेमें तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तवमें जो परिपूर्ण है, वही ' है ' और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ' नहीं ' है।यहाँ तत् पदसे सत्-तत्त्वको परोक्षरीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, इसलिये उसको परोक्षरीतिसे कहा गया है।येन सर्वमिदं ततम् (टिप्पणी प0 57.1) -- जिसको परोक्ष कहा है, उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे व्याप्त है। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा, मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तवमें इस संसारमें वह सत्-तत्त्व ही जाननेयोग्य है।विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति -- यह शरीरी अव्यय (टिप्पणी प0 57.2) अर्थात् अविनाशी है। इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परन्तु शरीर विनाशी है -- क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशीके विनाशको कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और विनाशी तत्त्वमें कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश होगा ही।यहाँ अस्य पदसे सत्-तत्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत्-तत्त्वकी ही है। ' मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ' -- ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है, उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ अस्य पद दिया है ।।2.17।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अविनाशि न विनष्टुं शीलं यस्येति। तु शब्दः असतो विशेषणार्थः। तत् विद्धि विजानीहि। किम्? येन सर्वम् इदं जगत् ततं व्याप्तं सदाख्येन ब्रह्मणा साकाशम्, आकाशेनेव घटादयः। विनाशम् अदर्शनम् अभावम्। अव्ययस्य न व्येति उपचयापचयौ न याति इति अव्ययं तस्य अव्ययस्य। नैतत् सदाख्यं ब्रह्म स्वेन रूपेण व्येति व्यभिचरति, निरवयवत्वात्, देहादिवत्। नाप्यात्मीयेन, आत्मीयाभावात्।यथा देवदत्तो धनहान्या व्येति, न तु एवं ब्रह्म व्येति। अतः अव्ययस्य अस्य ब्रह्मणः विनाशं न कश्चित् कर्तुमर्हति, न कश्चित् अत्मानं विनाशयितुं शक्नोति ईश्वरोऽपि। आत्मा हि ब्रह्म, स्वात्मनि च क्रियाविरोधात्।।किं पुनस्तदसत् यत्स्वात्मसत्तां व्यभिचरतीति, उच्यते -- ।।2.17।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.17 Tu, but -- this word is used for distinguishing (reality) from unreality; tat viddhi, know That; to be avinasi, indestructible, by nature not subject to destruction; what? (that) yena, by which, by which Brahman called Reality; sarvam, all; idam, this, the Universe together with space; is tatam, pervaded, as pot etc. are pervaded by space. Na kascit, none; arhati, can; kartum, bring about; vinasam, the destruction, disappearance, nonexistence; asya, of this avyayasya, of the Immutable, that which does not undergo growth and depletion. By Its very nature this Brahman called Reality does not suffer mutation, because, unlike bodies etc., It has no limbs; nor (does It suffer mutation) by (loss of something) belonging to It, because It has nothing that is Its own. Brahman surely does not suffer loss like Devadatta suffering from loss of wealth. Therefore no one can bring about the destruction of this immutable Brahman. No one, not even God Himself, can destroy his own Self, because the Self is Brahman. Besides, action with regard to one's Self is self-contradictory.Which, again, is that 'unreal' that is said to change its own nature? This is being answered:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तो, जो निस्सन्देह सत् है और सदैव रहता है वह क्या है? इसपर कहा जाता है -- नष्ट न होना जिसका स्वभाव है, वह अविनाशी है। 'तु' शब्द असत्से सत्की विशेषता दिखानेके लिये है। उसको तू ( अविनाशी ) जान -- समझ, किसको? जिस सत् शब्दवाच्य ब्रह्मसे यह आकाशसहित सम्पूर्ण विश्व आकाशसे घटादिके सदृश व्याप्त है। इस अव्ययका अर्थात् जिसका व्यय नहीं होता जो घटता-बढ़ता नहीं उसे अव्यय कहते हैं, उसका विनाश-अभाव ( करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है )। क्योंकि यह सत् नामक ब्रह्म अवयवरहित होनेके कारण देहादिकी तरह अपने स्वरूपसे नष्ट नहीं होता अर्थात् इसका व्यय नहीं होता। तथा इसका कोई निजी पदार्थ नहीं होनेके कारण निजी पदार्थोंके नाशसे भी इसका नाश नहीं होता, जैसे देवदत्त अपने धनकी हानिसे हानिवाला होता है, ऐसे ब्रह्म नहीं होता। इसलिये कहते हैं कि इस अविनाशी ब्रह्मका विनाश करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है। कोई भी अर्थात् ईश्वर भी अपने आपका नाश नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा ही स्वयं ब्रह्म है और अपने आपमें क्रियाका विरोध है ।।2.17।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
तद् आत्मतत्त्वम् अविनाशि इति विद्धि, येन आत्मतत्त्वेन चेतनेन तद्व्यतिरिक्तम् इदम् अचेतनतत्त्वं सर्वं ततं व्याप्तम्। व्यापकत्वेन निरतिशयसूक्ष्मत्वाद् आत्मनो विनाशानर्हस्य तद्व्यतिरिक्तो न कश्चित् पदार्थो विनाशं कर्तुम् अर्हति, तद्व्याप्यतया तस्मात् स्थूलत्वात्। नाशकं हि शस्त्रं जलाग्निवाय्वादिकं नाश्यं व्याप्य शिथिलीकरोति। मुद्गरादयः अपि हि वेगवत्संयोगेन वायुम् उत्पाद्य तद्द्वारेण नाशयन्ति; अत आत्मतत्त्वम् अविनाशि।देहानां तु विनाशित्वम् एव स्वभाव इत्याह -- ।।2.17।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.17 Know that the self in its essential nature is imperishable. The whole of insentient matter, which is different (from the self), is pervaded by the self. Because of pervasiveness and extreme subtlety, the self cannot be destroyed; for every entity other than the self is capable of being pervaded by the self, and hence they are grosser than It. Destructive agents like weapons, water, wind, fire etc., pervade the substances to be destroyed and disintegrate them. Even hammers and such other instruments rouse wind through violent contact with the objects and thereby destroy their objects. So, the essential nature of the self being subtler than anything else, It is imperishable.(The Lord) now says that the bodies are perishable:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
क्षयविनाशौ निराकरोति -- अविनाशीति। पुनः तदात्मवस्तु अविनाशि विद्धि। किम्भूतं? येन सर्वमिदं देहादि विश्वं ततं व्याप्तं असदपि विनश्यदवस्थमपि सदिति व्यवह्रियते। अव्ययस्य क्षयरहितस्यास्योपलभ्यमानस्य तदुत्तरतोप्यदृश्यमानं विनाशं कर्त्तुं कश्चिज्जनः शस्त्राग्न्यादिभिश्च नार्हति ।।2.17।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वेतादृशस्य सतो ज्ञानाद्भेदे परिच्छिन्नत्वापत्तेर्ज्ञानात्मकत्वमभ्युपेयं तच्चानाध्यासिकम्, अन्यथा जडत्वापत्तेः। तथाचानाध्यासिकज्ञानरूपस्य सतो धात्वर्थत्वादुत्पत्तिविनाशवत्त्वं घटज्ञानमुत्पन्नं घटज्ञानं नष्टमिति प्रतीतेश्च। एवंचाहं घटं जानामीति प्रतीतेस्तस्य साश्रयत्वं सविषयत्वं चेति देशकालवस्तुपरिच्छिन्नत्वात्स्फुरणस्य कथं तद्रूपस्य सतो देशकालवस्तुपरिच्छेदशून्यत्वमित्याशङ्क्याह -- विनाशो देशतः कालतो वस्तुतो वा परिच्छेदः सोऽस्यास्तीति विनाशि परिच्छिन्नं तद्विलक्षणमविनाशि सर्वप्रकारपरिच्छेदशून्यं तु एव तत् सद्रूपं स्फुरणं त्वं विद्धि जानीहि। किं तत्। येन सद्रूपेण स्फुरणेनैकेन नित्येन विभुना सर्वमिदं दृश्यजातं स्वतः सत्तास्फूर्तिशून्यं ततं व्याप्तं स्वसत्तास्फूर्त्यध्यासेन रज्जुशकलेनेव सर्पधारादि स्वस्मिन्समावेशितं तदविनाश्येव विद्धीत्यर्थः। कस्मात्। यस्मात् विनाशं परिच्छेदं अव्ययस्यापरिच्छिन्नस्यापरोक्षस्य सर्वानुस्यूतस्य स्फुरणरूपस्य सतः कश्चित् कोऽप्याश्रयो वा विषयो वा इन्द्रियसंनिकर्षादिरूपो हेतुर्वा न कर्तुमर्हति समर्थो न भवति, कल्पितस्याकल्पितपरिच्छेदकतायोगात् आरोपमात्रे चेष्टापत्तेः। अहं घटं जानामीत्यत्र ह्यहंकार आश्रयतया भासते घटस्तु विषयतया। उत्पत्तिविनाशवती काचिदहंकारवृत्तिस्तु सर्वतो विप्रसृतस्य सतः स्फुरणस्य व्यञ्जकतया आत्ममनोयोगस्य परैरपि ज्ञानहेतुत्वाभ्युपगमात्, तदुत्पत्तिविनाशेनैव च तदुपहिते स्फुरणरूपे सत्युत्पत्तिविनाशप्रतीत्युपपत्तेर्नैकस्य स्फुरणस्य स्वत उत्पत्तिविनाशकल्पनाप्रसङ्गः, ध्वन्यवच्छेदेन शब्दवद्धटाद्यवच्छेदेनाकाशवच्च। अहंकारस्तु तस्मिन्नध्यस्तोऽपि तदाश्रयतया भासते, तद्वृत्तितादात्म्याध्यासात् सुषुप्तावहंकाराभावेऽपि तद्वासनावासिताज्ञानभासकस्य चैतन्यस्य स्वतःस्फुरणात्, अन्यथैतावन्तं कालमहं किमपि नाज्ञासिषमिति सुषुप्तोत्थितस्य स्मरणं न स्यात्। नचोत्थितस्य ज्ञानाभावानुमितिरियमिति वाच्यम्। सुषुप्तिकालरूपपक्षाज्ञानाल्लिङ्गासंभवाच्चास्मरणादेर्व्यभिचारित्वात् स्मरणाजनकनिर्विकल्पकाद्यभावासाधकत्वाच्च। ज्ञानसामग्र्यभावस्य चान्योन्याश्रयग्रस्तत्वात्। तथाच श्रुतिः'यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तद्द्रष्टव्यं न पश्यति नहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्' इत्यादिः। सुषुप्तौ स्वप्रकाशस्फुरणसद्भावं तन्नित्यतया दर्शयति। एवं घटादिर्विषयोऽपि तदज्ञातावस्थाभासके स्फुरणे कल्पितः। य एव प्रागज्ञातः स एवेदानीं मया ज्ञात इति प्रत्यभिज्ञानात्। अज्ञातज्ञापकत्वं हि प्रामाण्यं सर्वतन्त्रसिद्धान्तः। यथार्थानुभवः प्रमेति वदद्भिस्तार्किकैरपि ज्ञातज्ञापिकायाः स्मृतेर्व्यावर्तकमनुभवपदं प्रयुञ्जानैरेतदभ्युपगमात्। अज्ञातत्वं च घटादेर्न चक्षुरादिना परिच्छिद्यते तत्रासामर्थ्यात्तज्ज्ञानोत्तरकालमज्ञानस्यानुवृत्तिप्रसङ्गाच्च। नाप्यनुमानेन लिङ्गाभावात्। नहीदानीं ज्ञातत्वेन प्रागज्ञातत्वमनुमातुं शक्यं, धारावाहिकानेकज्ञानविषये व्यभिचारात्। इदानीमेव ज्ञातत्वं तु प्रागज्ञातत्वे सतीदानीं ज्ञातत्वरूपं साध्याविशिष्टत्वादसिद्धम्। नचाज्ञातावस्थाज्ञानमन्तरेण ज्ञानं प्रति घटादेर्हेतुता ग्रहीतुं शक्यते, पूर्ववर्तित्वाग्रहात्, घटं न जानामीति सार्वलौकिकानुभवविरोधश्च। तस्मादज्ञातं स्फुरणं भासमानं स्वाध्यस्तं घटादिकं भासयतीति घटादीनामज्ञाते स्फुरणे कल्पितत्वसिद्धिः। अन्यथा घटादेर्जडत्वेनाज्ञातत्वतद्भानयोरनुपपत्तेः स्फुरणं चाज्ञातं स्वाध्यस्तेनैवाज्ञानेनेति स्वयमेव भगवान्वक्ष्यति'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः' इत्यत्र। एतेन विभुत्वं सिद्धम्। तथाच श्रुतिः'महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एव' इति,'सत्यं ज्ञानमनन्तम्' इति च ज्ञानस्य महत्त्वमनन्तत्वं च दर्शयति। महत्त्वं स्वाध्यस्तसर्वसंबन्धित्वं, अनन्तत्वं त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वमिति विवेकः। एतेन शून्यवादोऽपि प्रत्युक्तः, निरधिष्ठानभ्रमायोगान्निरवधिबाधायोगाच्च। तथाच श्रुतिः'पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः' इति सर्वबाधावधिं पुरुषं परिशिनष्टि। उक्तंच भाष्यकारैः'सर्वं विनश्यद्वस्तुजातं पुरुषान्तं विनश्यति पुरुषो विनाशहेत्वभावान्न विनश्यति इति। एतेन क्षणिकवादोऽपि परास्तः। अबाधितप्रत्यभिज्ञानादन्यदृष्टान्यस्मरणाद्यनुपपत्तेश्च। तस्मादेकस्य सर्वानुस्यूतस्य स्वप्रकाशस्फुरणरूपस्य सतः सर्वप्रकारपरिच्छेदशून्यत्वादुपपन्नं नाभावो विद्यते सत इति ।।2.17।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
किं बहुना? यद्देशतोऽनन्तं तन्नित्यमेव। वेदाद्यन्यदपीत्याह -- 'अविनाशीति'। नापि शापादिना विनाश इत्याह -- 'विनाशमिति'। अव्ययं च तत् ।।2.17।।

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