शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-31


मूल स्लोकः

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2.31।।




English translation by Swami Sivananda
2.31 Further, having regard to thy duty, shouldst not waver, for there is nothing higher for a Kshatriya than a righteous war.


English commentary by Swami Sivananda
2.31 स्वधर्मम् own duty, अपि also, च and, अवेक्ष्य looking at, न not, विकम्पितुम् to waver, अर्हसि (thou) oughtest, धर्म्यात् than righteous, हि indeed, युद्धात् than war, श्रेयः higher, अन्यत् other, क्षत्रियस्य of a Kshatriya, न not, विद्यते is.Commentary: Lord Krishna now gives to Arjuna wordly reasons for fighting. Up to this time, He talked to Arjuna on the immortality of the Self and gave him philosophical reasons. Now He says to Arjuna, "O Arjuna! Fighting is a Kshatriya's own duty. You ought not to swerve from that duty. To a Kshatriyta (one born in the warrior or ruling class) nothing is more welcome than a righteous war. A warrior should fight."



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अपने धर्मको देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्मसे विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है ।।2.31।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- पहले दो श्लोकोंमें युद्धसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं।स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि -- यह स्वयं परमात्माका अंश है। जब यह शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह ' स्व' को अर्थात् अपने-आपको जो कुछ मानता है, उसका कर्तव्य स्वधर्म कहलाता है। जैसे, कोई अपने-आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र मानता है, तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपने को शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकरके कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपनेको किसीका पिता या किसीका पुत्र मानता है, तो पुत्र या पिताके प्रति किये जानेवाले कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है।यहाँ क्षत्रियके कर्तव्य-कर्मको ' धर्म' नामसे कहा गया है (टिप्पणी प0 71.2)। क्षत्रियका खास कर्तव्य-कर्म है -- युद्धसे विमुख न होना। अर्जुन क्षत्रिय हैं; अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि अगर स्वधर्मको लेकर देखा जाय तो भी क्षात्रधर्मके अनुसार तुम्हारे लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अपने कर्तव्यसे तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिये।धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते -- धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रियके लिये क्षत्रियके कर्तव्यका अनुष्ठान करना ही खास काम है (गीता 18। 43)। ऐसे ही ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके लिये भी अपने-अपने कर्तव्यका अनुष्ठान करनेके सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है।अर्जुनने सातवें श्लोकमें प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये निश्चित श्रेयकी बात कहिये। उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि श्रेय (कल्याण) तो अपने धर्मका पालन करनेसे ही होगा। किसी भी दृष्टिसे अपने धर्मका त्याग कल्याणकारक नहीं है। अतः तुम्हें अपने युद्धरूप धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिये ।।2.31।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- स्वधर्ममपि स्वो धर्मः क्षत्रियस्य युद्धं तमपि अवेक्ष्य त्वं न विकम्पितुं प्रचलितुम् नार्हसि क्षत्रियस्य स्वाभाविकाद्धर्मात् आत्मस्वाभाव्यादित्यभिप्रायः। तच्च युद्धं पृथिवीजयद्वारेण धर्मार्थं प्रजारक्षणार्थं चेति धर्मादनपेतं परं धर्म्यम्। तस्मात् धर्म्यात् युद्धात् श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते हि यस्मात्।।कुतश्च तत् युद्धं कर्तव्यमिति, उच्यते -- ।।2.31।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.31 Api, even; aveksya, considering; svadharmam, your own duty, the duty of a Ksatriya, viz battle -- considering even that -- ; na arhasi, you ought not; vikampitum, to waver, to deviate from the natural duty of the Ksatriya, i.e. from what is natural to yourself. And hi, since that battle is not devoid of righteousness, (but) is supremely righteous -- it being conducive to virtue and meant for protection of subjects through conquest of the earth --; therefore, na vidyate, there is nothing; anyat, else; sreyah, better; ksatriyasya, for a ksatriya; than that dharmyat, righteous; yuddhat, battle.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यहाँ यह कहा गया कि परमार्थ-तत्त्वकी अपेक्षासे शोक या मोह करना नहीं बन सकता। केवल इतना ही नहीं कि परमार्थ-तत्त्वकी अपेक्षासे शोक और मोह नहीं बन सकते, किंतु -- क्षत्रियके लिये जो युद्धरूप स्वधर्म है उसे देखकर भी तुझे कम्पित होना उचित नहीं है, अभिप्राय यह कि अपने स्वाभाविक धर्मसे विचलित होना ( हटना ) भी तुझे उचित नहीं है। क्योंकि वह युद्ध पृथ्वी-विजयद्वारा धर्म-पालन और प्रजा-रक्षणके लिये किया जाता है, इसलिये धर्मसे ओतप्रोत परम धर्म्य है, अतः उस धर्ममय युद्धके सिवा दूसरा कुछ क्षत्रियके लिये कल्याणप्रद नहीं है ।।2.31।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अपि च इदं प्रारब्धं युद्धं प्राणिमारणम् अपि अग्नीषोमीयादिवत् स्वधर्मम् अवेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि धर्म्यात् न्यायतः प्रवृत्तात् युद्धाद् अन्यत् न हि क्षत्रियस्य श्रेयो विद्यते।'शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।(गीता 18।43) इति हि वक्ष्यते।अग्नीषोमीयादिषु च न हिंसा पशोः निहीनतरच्छागादिदेहपरित्यागपूर्वककल्याणदेहस्वर्गादिप्रापकत्वश्रुतेः संज्ञपनस्य।'न वा उ वेतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः। यत्र यान्ति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु' (यजुर्वेद 4।6।9।43) इति हि श्रूयते।इह च युद्धे मृतानां कल्याणतरदेहादिप्राप्तिः उक्ता वासांसि जीर्णानि' (गीता 2।22) इत्यादिना। अतः चिकित्सककर्म आतुरस्थ इव अस्य रक्षणम् एव अग्नीषोमीयादिषु संज्ञपनम् ।।2.31।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.31 Further, even though there is killing of life in this war which has begun, it is not fit for you to waver, considering your own duty, as in the Agnisomiya and other sacrifices involving slaughter. To a Ksatriya, there is no greater good than a righteous war, begun for a just cause. It will be declared in the Gita: 'Valour, non-defeat (by the enemies), fortitude, adroitness and also not fleeing from battle, generosity, lordliness --- these are the duties of the Ksatriya born of his very nature.' (18.43).In Agnisomiya etc., no injury is caused to the animal to be immolated; for, according to the Vedic Text, the victim, a he-goat, after abandoning an inferior body, will attain heaven etc., with a beautiful body. The Text pertaining to immolation declares: 'O animal, by this (immolation) you will never die, you are not destroyed. You will pass through happy paths to the realm of the gods, where the virtuous only reach and not the sinful. May the god Savitr give you a proper place.' (Yaj. 4.6.9.46). Likewise the attainment of more beautiful bodies by those who die here in this war has been declared in the Gita, 'As a man casts off worn-out garments and takes others that are new ...' (2.22). Hence, just as lancing and such other operations of a surgeon are for curing a patient, the immolation of the sacrificial animal in the Agnisomiya etc., is only for its good.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
किञ्च यदुक्तं'वेपथुश्च शरीर मे' 1।29 इत्यादिधर्मविरुद्धमात्मलक्षमं तदप्ययुक्तमित्याह -- स्वधर्ममिति। धर्मनिष्ठस्य नैतदुचितमित्याह -- धर्म्यादिति ।।2.31।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तदेवं स्थूलसूक्ष्मशरीरद्वयतत्कारणाविद्याख्योपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरूपं सर्वप्राणिसाधारणमर्जुनस्य भ्रमं निराकर्तुमुपाधित्रयविवेकेनात्मस्वरूपमभिहितवान्। संप्रति युद्धाख्ये स्वधर्मे हिंसादिबाहुल्येनाधर्मत्वप्रतिभासरूपमर्जुनस्यैव करुणादिदोषनिबन्धनमसाधारणं भ्रमं निराकर्तुं हिंसादिमत्त्वेऽपि युद्धस्य स्वधर्मत्वेनाधर्मत्वाभावं बोधयति भगवान् -- न केवलं परमार्थतत्त्वमेवावेक्ष्य किंतु स्वधर्ममपि क्षत्रियधर्ममपि युद्धापराङगमुखत्वरूपमवेक्ष्य शास्त्रतः पर्यालोच्य विकम्पितुं विचलितुं धर्मादावधर्मत्वभ्रान्त्या निवर्तितुं नार्हसि। तत्रैवं सति'यद्यप्येते न पश्यन्ति' इत्यादिना'नरके नियतं वासो भवति' इत्यन्तेन युद्धस्य पापहेतुत्वं त्वया यदुक्तं,'कथं भीष्ममहं संख्ये' इत्यादिना गुरुवधब्रह्मवधाद्यकरणं यदभिसंहितं तत्सर्वं धर्मशास्त्रापर्यालोचनादेवोक्तम्। कस्मात्। हि यस्मात् धर्म्यादपराङ्मुखत्वधर्मादनपेताद्युद्धादन्यत्क्षत्रियस्य श्रेयः श्रेयःसाधनं न विद्यते। युद्धमेव हि पृथिवीजयद्वारेण प्रजारक्षणब्राह्मणशुश्रूषादिक्षात्रधर्मनिर्वाहकमिति तदेव क्षत्रियस्य प्रशस्ततरमित्यभिप्रायः। तथाचोक्तं पराशरेण -- 'क्षत्रियो हि प्रजा रक्षञ्शस्त्रपाणिः प्रदण्डवान्। निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत्।।' मनुनापि -- 'समोत्तमाधमै राजा चाहूतः पालयन्प्रजाः। न निवर्तेत संग्रामात्क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्।।संग्रामेष्वनिवर्तित्वं प्रजानां चैव पालनम्। शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञः श्रेयस्करं परम्।।' इत्यादिना। राजशब्दश्च क्षत्रियजातिमात्रवाचीति स्थितमवेष्ट्यधिकरणे। तेन भूमिपालस्यैवायं धर्म इति न भ्रमितव्यम्। उदाहृतवचनेऽपि क्षत्रियो हीति क्षात्रं धर्ममिति च स्पष्टं लिङ्गम्। तस्मात्क्षत्रियस्य युद्धं प्रशस्तो धर्म इति साधु भगवताभिहितम्'अपशवोऽन्ये गोअश्वेभ्यः पशवो गोअश्वाः' इतिवत्प्रशंसालक्षणया युद्धादन्यच्छ्रेयःसाधनं न विद्यत इत्युक्तमिति न दोषः। एतेन युद्धात्प्रशस्ततरं किंचिदनुष्ठातुं ततो निवृत्तिरुचितेति निरस्तम्,'न च श्रेयोऽनु पश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे' इत्येतदपि ।।2.31।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.31।।

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