शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-40


मूल स्लोकः

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।




English translation by Swami Sivananda
2.40 In this there is no loss of effort, nor is there any harm (production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear.


English commentary by Swami Sivananda
2.40 न not, इह in this, अभिक्रमनाशः loss of effort, अस्ति is, प्रत्यवायः production of contrary results, न not, विद्यते is, स्वल्पम् very little, अपि even, अस्य of this, धर्मस्य duty, त्रायते protects, महतः (from) great, भयात् fear.Commentary: If a religious ceremony is left uncompleted, it is a wastage as the performer cannot realise the fruits. But it is not so in the case of Karma Yoga because every action causes immediate purification of the heart.In agriculture there is uncertainty. The farmer may till the land, plough and sow the seed; but he may not get a crop if there is no rain. This is not so in Karma Yoga. There is no uncertainty at all. Further, there is no chance of any harm coming out of it. In the case of medical treatment great harm will result from the doctor's injudicious treatment if he uses a wrong medicine. But it is not so in the case of Karma Yoga. Anything done, however little it may be, in this path of Yoga, the Yoga of action, saves one from great fear of being caught in the wheel of birth and death. Lord Krishna here extols Karma Yoga in order to create interest in Arjuna in this Yoga.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है ।।2.40।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- इस समबुद्धिकी महिमा भगवान्ने पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें और इस (चालीसवें) श्लोकमें चार प्रकारसे बतायी है -- (1) इसके द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, (2) इसके उपक्रमका नाश नहीं होता, (3) इसका उलटा फल नहीं होता और (4) इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा करनेवाला होता है।नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति -- इस समबुद्धि (समता) का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता। मनमें समता प्राप्त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है। इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है।यहाँ इह कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्त करनेका अधिकारी है। मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ है। अतः उन योनियोंमें विषमता (राग-द्वेष) का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं प्रत्युत साधन ही होगा।प्रत्यवायो न विद्यते -- सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे, कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अङ्गोंके साथ नहीं जन्मता! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है, उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती। जबतक फलेच्छा रहती है तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं।विपरीत फल क्या है? संसारसे विषमताका होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है।स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् -- इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय, तो यह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है, ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होत। साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अ़टल हो जाती है। इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता। जैसे, योगभ्रष्टकी साधन-अवस्था में जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन-सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोगमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीता 6। 41, 44)। यह समता, साधन-सामग्री कभी किञ्चिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है।धर्म नाम दो बातोंका है -- (1) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (2) वर्ण-आश्रमके अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है।समता-सम्बन्धी विशेष बातलोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है-समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें' जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।समता दो तरहकी होती है -- अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसार-मात्रपर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीता 5। 19)। अन्तःकरणकी समता है -- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीता 2। 48)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय, कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रूपये आ जायँ या लाखों रूपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता 5। 20)। इस समताका कभी नाश नहीं होता। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं।मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती है, पर कल्याण नहीं होता। परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)।सम्बन्ध -- उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस समबुद्धिको योगमें सुननेके लिये कहा था, उसी समबुद्धिको प्राप्त करनेका साधन आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.40।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न इह मोक्षमार्गे कर्मयोगे अभिक्रमनाशः अभिक्रमणमभिक्रमः प्रारम्भः तस्य नाशः नास्ति यथा कृष्यादेः। योगविषये प्रारम्भस्य न अनैकान्तिकफलत्वमित्यर्थः। किञ्चनापि चिकित्सावत् प्रत्यवायः विद्यते भवति। किं तु स्वल्पमपि अस्य धर्मस्य योगधर्मस्य अनुष्ठितं त्रायते रक्षति महतः भयात् संसारभयात् जन्ममरणादिलक्षणात्।।येयं सांख्ये बुद्धिरुक्ता योगे च, वक्ष्यमाणलक्षणा सा -- ।।2.40।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.40 Moreover, iha, here, in the path to Liberation, viz the Yoga of Action (rites and duties); na, there is no; abhikrama-nasah, waste of an attempt, of a beginning, unlike as in agriculture etc. The meaning is that the result of any attempt in the case of Yoga is not uncertain. Besides, unlike as in medical care, na vidyate, nor is there, nor does there arises; any pratyavayah, harm. But, svalpam api, even a little; asya, of this; dharmasya, righteousness in the form of Yoga (of Action); when pracised, trayate, saves (one); mahato bhayat, from great fear, of mundance existence characterized by death, birth, etc.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
इसके सिवा और भी सुन -- आरम्भका नाम अभिक्रम है, इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्गमें अभिक्रमका यानी प्रारम्भका कृषि आदिके सदृश नाश नहीं होता। अभिप्राय यह कि योगविषयक प्रारम्भका फल अनैकान्तिक ( संशययुक्त ) नहीं है। तथा चिकित्सादिकी तरह ( इसमें ) प्रत्यवाय ( विपरीत फल ) भी नहीं होता है। तो क्या होता है? इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान ( साधन ) जन्म-मरणरूप महान् संसारभयसे रक्षा किया करता है ।।2.40।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
इह कर्मयोगे न अभिक्रमनाशः अस्ति। अभिक्रम आरम्भः नाशः फलसाधनभावनाशः। आरब्धस्य असमाप्तस्य विच्छिन्नस्य अपि न निष्फलत्वम्। आरब्धस्य विच्छेदे प्रत्यवायः अपि न विद्यते। अस्य कर्मयोगाख्यस्य स्वधर्मस्य स्वल्पांशः अपि महतो भयात् संसारभयात् त्रायते। अयम् अर्थः -- 'पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।' (गीता 6।40) इति उत्तरत्र प्रपञ्चयिष्यते।अन्यानि हि लौकिकानिवैदिकानि च साधनानि विच्छिन्नानि न हि फलप्रसवाय भवन्ति प्रत्यवायाय च भवन्ति।काम्यकर्मविषयाया बुद्धेः मोक्षसाधनभूतकर्मविषयां बुद्धिं विशिनष्टि -- ।।2.40।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.40 Here, in Karma Yoga, there is no loss of 'Abhikrama' or of effort that has been put in; 'loss' means the loss of efficacy to bring about the fruits. In Karma Yoga if work is begun and left unfinished, and the continuity is broken in the middle, it does not remain fruitless, as in the case of works undertaken for their fruits. No evil result is acquired if the continuity of work is broken. Even a little of this Dharma known as Karma Yoga or Niskama Karma (unselfish action without desire for any reward) gives protection from the great fear, i.e., the fear of transmigratory existence.The same purport is explained later thus: 'Neither in this world nor the next, O Arjuna, there is annihilation for him' (6.40). But in works, Vedic and secular, when there is interruption in the middle, not only do they not yield fruits, but also there is accrual of evil.Now, Sri Krsna distinguishes the Buddhi or mental disposition concerned with those acts which constitute a means for attaining release from those which are concerned with the acts meant for gaining the desired objects:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
सर्वतो योगे सुगमतामाह -- नेहाभिक्रमनाश इति। इह योगबुद्धौ धर्मस्य योऽभिक्रमः प्रारम्भस्तस्य नाशो नास्ति।'नह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो स्वधर्मस्योद्धवाण्वपि। मया व्यवसितः' 11।29।20 इति भागवतवाक्यात्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्याभिक्रमो महतो भयात्त्रायते। साङ्ख्ये तु सिद्धे धर्मकर्मणां त्यागः; अत्र तु न तथा। उक्तं च -- 'यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता' इति ।।2.40।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन' इति श्रुत्या विविदिषां ज्ञानं चोद्दिश्य संयोगपृथक्त्वन्यायेन सर्वकर्मणां विनियोगात्तत्र चान्तःकरणशुद्धेर्द्वारत्वान्मांप्रति कर्मानुष्ठानं विधीयते। तत्र'तद्यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते' इति श्रुतिबोधितस्य फलनाशस्य संभवात् ज्ञानं विविदिषां चोद्दिश्य क्रियमाणस्य यज्ञादेः काम्यत्वात्सर्वाङ्गोपसंहारेणानुष्ठेयस्य यत्किंचिदङ्गासंपत्तावपि वैगुण्योपपत्तेर्यज्ञेनेत्यादिवाक्यविहितानां च सर्वेषां कर्मणामेकेन पुरुषायुषपर्यवसानेऽपि कर्तुमशक्यत्वात्कुतः'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' इति फलं प्रत्याशेत्यत आह भगवान् -- अभिक्रम्यते कर्मणा प्रारभ्यते यत्फलं सोऽभिक्रमस्तस्य नाशस्तद्यथेहेत्यादिना प्रतिपादितः स इह निष्कामकर्मयोगे नास्ति एतत्फलस्य शुद्धेः पापक्षयरूपत्वेन लोकशब्दावाच्यभोग्यत्वाभावेन च क्षयासंभवात्, वेदनपर्यन्ताया एव विविदिषायाः कर्मफलत्वाद्वेदनस्य चाव्यवधानेनाज्ञाननिवृत्तिफलजनकस्य फलमजनयित्वा नाशासंभवादिह फलनाशो नास्तीति साधूक्तम्। तदुक्तम् -- 'तद्यथेहेति या निन्दा सा फले न तु कर्मणि। फलेच्छां तु परित्यज्य कृतं कर्म विशुद्धिकृत्।।' इति। तथा प्रत्यवायोऽङ्गवैगुण्यनिबन्धनं वैगुण्यमिह न विद्यते तमितिवाक्येन नित्यानामेवोपात्तदुरितक्षयद्वारेण विविदिषायां विनियोगात्। तत्रच सर्वाङ्गोपसंहारनियमाभावात्, काम्यानामपि संयोगपृथक्त्वन्यायेन विनियोग इति पक्षेऽपि फलाभिसंधिरहितत्वेन तेषां नित्यतुल्यत्वात्। नहि काम्यनित्याग्निहोत्रयोः स्वतः कश्चिद्विशेषोऽस्ति। फलाभिसंधितदभावाभ्यामेव तु काम्यत्वनित्यत्वव्यपदेशः। इदंच पक्षद्वयमुक्तं वार्तिके -- 'वेदानुवचनादीनामैकात्म्यज्ञानजन्मने। तमेतमिति वाक्येन नित्यानां वक्ष्यते विधिः।।यद्वा विविदिषार्थत्वं काम्यानामपि कर्मणाम्। तमेतमिति वाक्येन संयोगस्य पृथक्त्वतः।।' इति। तथाच फलाभिसंधिना क्रियमाण एव कर्मणि सर्वाङ्गोपसंहारनियमात्तद्विलक्षणे शुद्ध्यर्थे कर्मणि प्रतिनिध्यादिना समाप्तिसंभवान्नाङ्गवैगुण्यनिमित्तः प्रत्यवायोऽस्तीत्यर्थः। तथास्य शुद्ध्यर्थस्य धर्मस्य'तमेतम्' इत्यादिवाक्यविहितस्य मध्ये स्वल्पमपि संख्ययेतिकर्तव्यतया वा यथाशक्तिभगवदाराधनार्थं किंचिदप्यनुष्ठितं सन्महतः संसारभयात्त्रायते भगवत्प्रसादसंपादनेनानुष्ठातारं रक्षति।'सर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। भूयस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।।' इत्यादिस्मृतेः।'तमेतम्' इति वाक्ये समुच्चयविधायकाभावाच्च अशुद्धितारतम्यादेवानुष्ठानतारतम्योपपत्तेर्युक्तमुक्तं'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' इति ।।2.40।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.40।।

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