शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-12


मूल स्लोकः

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।




English translation by Swami Sivananda
2.12 Nor at any time indeed was I not, nor thou, nor these rulers of men, nor verily shall we ever cease to be hereafter.


English commentary by Swami Sivananda
2.12 न not, तु indeed, एव also, अहम् I, जातु at any time, न not, आसम् was, न not, त्वम् thou, न not, इमे these, जनाधिपाः rulers of men, न not, च and, एव also, न not, भविष्यामः shall be, सर्वे all, वयम् we, अतः from this time, परम् after.Commentary -- Lord Krishna speaks here of the immortality of the Soul or the imperishable nature of the Self (Atman). The Soul exists in the three periods of time (past, present and future). Man continues to exist even after the death of the physical body. There is life beyond.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद मैं, तू और राजलोग - ये सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है ।।2.12।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं -- शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी -- (शरीरमें रहनेवाले-) को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनोंके लिये पूर्वश्लोकमें जो'अशोच्यान् ' पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें करते हैं।न त्वेहाहं जातु ... जनाधिपाः -- लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था, तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे। परन्तु मैं, तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे -- ऐसी बात नहीं है।यहाँ ' मैं, तू और ये राजालोग पहले थे -- ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर ' मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं ' -- ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि ' पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं ' ऐसा कहनेसे ' पहले हम सब जरूर थे ' -- यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। जातु कहनेका तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान-कालमें तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।यहाँ अहम् पद देकर भगवान्ने एक विलक्षण बात कही है। आगे चौथे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि ' मेरे और तेरे बहुत-से-जन्म हुए हैं, पर उनको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता'। इस प्रकार भगवान्ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवोंसे अपनेको अलग बताया है। परन्तु यहाँ भगवान् जीवोंके साथ अपनी एकता बता रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि वहाँ (4। 5 में) भगवान्का आशय अपनी महत्ता, विशेषता प्रकट करनेमें है और यहाँ भगवान्का आशय तात्त्विक दृष्टिसे नित्य-तत्त्वको जाननेमें है।न चैव ... वयमतः परम् -- भविष्यमें शरीरोंकी ये अवस्थाएँ नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर भी नहीं रहेंगे; परन्तु ऐसी अवस्थामें भी हम सब नहीं रहेंगे -- यह बात नहीं है अर्थात् हम सब जरूर रहेंगे। कारण कि नित्यतत्त्वका कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं।मैं, तू और राजालोग -- हम सभी पहले नहीं थे, यह बात भी नहीं है, और आगे नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं है -- इस प्रकार भूत और भविष्यकी बात तो भगवान्ने कह दी, पर वर्तमानकी बात भगवान्ने नहीं कही। इसका कारण यह है कि शरीरोंकी दृष्टिसे तो हम सब वर्तमानमें प्रत्यक्ष ही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिये' हम सब अभी नहीं हैं, यह बात नहीं है ' -- ऐसा कहनेकी जरूरत नहीं है। अगर तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय, तो हम सभी वर्तमानमें हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं -- इस तरह शरीरोंसे अलगावका अनुभव हमें वर्तमानमें ही कर लेना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्यमें अपनी सत्ताका अभाव नहीं है, ऐसे ही वर्तमानमें भी अपनी सत्ताका अभाव नहीं है -- इसका अनुभव करना चाहिये।जैसे प्रत्येक प्राणीको नींद खुलनेसे पहले भी यह अनुभव रहता है कि ' अभी हम हैं ' और नींद खुलनेपर भी यह अनुभव रहता है कि ' अभी हम हैं' तो नींदकी अवस्थामें भी हम वैसे-के-वैसे ही थे। केवल बाह्य जाननेकी सामग्रीका अभाव था, हमारा अभाव नहीं था। ऐसे ही मैं, तू और राजालोग -- हम सबके शरीर पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे तथा अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं; परन्तु हमारी सत्ता पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसी-की-वैसी ही है।हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है; क्योंकि हम उस कालके भी ज्ञाता हैं अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान -- ये तीनों काल हमारे जाननेमें आते हैं। उस कालातीत तत्त्वको समझानेके लिये ही भगवान्ने यह श्लोक कहा है।विशेष बात मैं, तू और राजालोग पहले नहीं थे -- यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे -- यह बात भी नहीं, ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे, तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम रहेंगे अर्थात् ये सब शरीर तो हैं नाशवान् और हम सब हैं अविनाशी। ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे -- इससे शरीरोंकी अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे -- इससे सबके स्वरूपकी नित्यता सिद्ध हुई। इन दो बातोंसे यह एक सिद्धान्त सिद्ध होता है कि जो आदि और अन्तमें रहता है, वह मध्यमें भी रहता है; तथा जो आदि और अन्तमें नहीं रहता, वह मध्यमें भी नहीं रहता।जो आदि और अन्तमें नहीं रहता, वह मध्यमें कैसे नहीं रहता; क्योंकि वह तो हमें दीखता है? इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टिसे अर्थात् जिन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे दृश्यका अनुभव हो रहा है, उन मन-बुद्ध-इन्द्रियोंसहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं। ऐसा होनेपर भी जब स्वयं दृश्यके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह द्रष्टा अर्थात् देखनेवाला बन जाता है। जब देखनेके साधन (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ) और दृश्य (मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके विषय) -- ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं, तो देखनेवाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा? तात्पर्य है कि देखनेवालेकी संज्ञा तो दृश्य और दर्शनके सम्बन्धसे ही है, दृश्य और दर्शन से सम्बन्ध न हो तो देखनेवालेकी कोई संज्ञा नहीं होती, प्रत्युत उसका आधाररूप जो नित्य-तत्व है, वही रहा जाता है। उस नित्य-तत्त्वको हम सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका आधार और सम्पूर्ण प्रतीतियोंका प्रकाशक कह सकते हैं। परन्तु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्यके सम्बन्धसे ही हैं। आधेय और प्रकाश्यके न रहनेपर भी उसकी सत्ता ज्यों-की-त्यों ही है। उस सत्य-तत्त्वकी तरफ जिसकी दृष्टि है, उसको शोक कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता। इसी दृष्टिसे मैं तू और राजालोग स्वरूपसे अशोच्य हैं ।।2.12।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न तु एव जातु कदाचित् अहं नासम्, किं तु आसमेव। अतीतेषु देहोत्पत्तिविनाशेषु घटादिषु वियदिव नित्य एव अहमासमित्यभिप्रायः। तथा न त्वं न आसीः, किं तु आसीरेव। तथा न इमे जनाधिपाः न आसन्, किं तु आसन्नेव। तथा न च एव न भविष्यामः, किं तु भविष्याम एव, सर्वे वयम् अतः अस्मात् देहविनाशात् परम् उत्तरकाले अपि। त्रिष्वपि कालेषु नित्या आत्मस्वरूपेण इत्यर्थः। देहेभेदानुवृत्त्या बहुवचनम्, नात्मभेदाभिप्रायेण।।तत्र कथमिव नित्य आत्मेति दृष्टान्तमाह -- ।।2.12।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.12 Why are they not to be grieved for? Because they are eternal. How? Na tu eva, but certainly it is not (a fact); that jatu, at any time; aham, I ; na asam, did not exist; on the contrary, I did exist. The idea is that when the bodies were born or died in the past, I existed eternally. Here Ast. adds ghatadisu viyadiva, like Space in pot etc.-Tr. Similarly, na tvam, nor is it that you did not exist; but you surely existed. Ca, and so also; na ime, nor is it that these ; jana-adhipah, rulers of men, did not exist. On the other hand, they did exist. And similarly, na eva, it is surely not that; vayam, we; sarve, all; na bhavisyamah, shall cease to exist; atah param, after this, even after the destruction of this body. On the contrary, we shall exist. The meaning is that even in all the three times (past, present and future) we are eternal in our nature as the Self. The plural number (in we) is used following the diversity of the bodies, but not in the sense of the multiplicity of the Self.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
वे भीष्मादि अशोच्य क्यों है? इसलिये कि वे नित्य हैं। नित्य कैसे हैं? -- किसी कालमें मैं नहीं था, ऐसा नहीं किंतु अवश्य था अर्थात् भूतपूर्व शरीरोंकी उत्पत्ति और विनाश होते हुए भी मैं सदा ही था। वैसे ही तू नहीं था सो नहीं किंतु अवश्य था ये राजागण नहीं थे सो नहीं किंतु ये भी अवश्य थे। इसके बाद अर्थात् इन शरीरोंका नाश होनेके बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किन्तु अवश्य रहेंगे। अभिप्राय यह है कि तीनों कालोंमें ही आत्मरूपसे सब नित्य हैं। यहाँ बहुवचनका प्रयोग देहभेदके विचारसे किया गया है, आत्मभेदके अभिप्रायसे नहीं ।।2.12।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अहं सर्वेश्वरः तावद् अतो वर्तमानात् पूर्वस्मिन् अनादौ काले न नासम् अपि तु आसम्। त्वन्मुखाः च एते ईशितव्याः क्षेत्रज्ञा न नासन् अपि त्वासन्। अहं च यूयं च सर्वे वयमतः परम् अस्माद् अनन्तरे काले न चैव न भविष्यामः अपि तु भविष्याम एव।यथा अहं सर्वेश्वरः परमात्मा नित्य इति न अत्र संशयः, तथैव भवन्तः क्षेत्रज्ञा आत्मानः अपि नित्या एव इति मन्तव्याः।एवं भगवतः सर्वेश्वराद् आत्मनां परस्परं च भेदः पारमार्थिकः, इति भगवता एव उक्तम् इति प्रतीयते। अज्ञानमोहितं प्रति तन्निवृत्तये पारमार्थिकनित्यत्वोपदेशसमये'अहम्''त्वम्''इमे''सर्वे''वयम्' इति व्यपदेशात्।औपाधिकात्मभेदवादे हि आत्मभेदस्य अतात्त्विकत्वेन तत्त्वोपदेशसमये भेदनिर्देशो न संगच्छते।भगवदुक्तात्मभेदः स्वाभाविकः, इति श्रुतिः अपि आह -- 'नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।' (श्वेता0 6।13) इति। नित्यानां बहूनां चेतनानां य एकः चेतनो नित्यः स कामान् विदधाति इत्यर्थः। अज्ञानकृतभेददृष्टिवादे तु परमपुरुषस्य परमार्थदृष्टेः निर्विशेषकूटस्थनित्यचैतन्यात्मयाथात्म्यसाक्षात्कारात् निवृत्ताज्ञानतत्कार्यतया अज्ञानकृतभेददर्शनं तन्मूलोपदेशादिव्यवहाराः च न संगच्छन्ते।अथ परमपुरुषस्य अधिगताद्वैतज्ञानस्य बाधितानुवृत्तिरूपम् इदं भेदज्ञानं दग्धपटादिवत् न बन्धकम् इति उच्येत, न एतद् उपपद्यते; मरीचिकाजलज्ञानादिकं हि बाधितम् अनुवर्तमानम् अपि न जलाहरणादिप्रवृत्तिहेतुः। एवम् अत्र अपि अद्वैतज्ञानेन बाधितं भेदज्ञानम् अनुवर्तमानम् अपि मिथ्यार्थविषयत्वनिश्चयात् न उपदेशादिप्रवृत्तिहेतुः भवति। न च ईश्वरस्य पूर्वम् अज्ञस्य शास्त्राधिगततत्त्वज्ञानतया बाधितानुवृत्तिः शक्यते वक्तुम्;'यः सर्वज्ञः सर्ववित्' (मु0 उ0 2।1।9) परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।' (श्वेता0 6।8)'वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।' (गीता 7।26) इति श्रुतिस्मृतिविरोधात्।किं च परमपुरुषश्च इदानीन्तनगुरुपरम्परा च अद्वितीयात्मस्वरूपनिश्चये सति अनुवर्तमाने अपि भेदज्ञाने स्वनिश्चयानुरूपम् अद्वितीयम् आत्मज्ञानं कस्मै उपदिशति इति वक्तव्यम्।प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्यः अर्जुनादिभ्यः इति चेत्, न एतद् उपपद्यते; न हि अनुन्मत्तः कोऽपि मणिकृपाणदर्पणादिषु प्रतीयमानेषु स्वात्मप्रतिबिम्बेषु तेषां स्वात्मनः अनन्यत्वं जानन् तेभ्यः कमपि अर्थम् उपदिशति।बाधितानुवृत्तिः अपि तैः न शक्यते वक्तुम्; बाधकेन अद्वितीयात्मज्ञानेन आत्मव्यतिरिक्तभेदज्ञानकारणस्य अज्ञानादेः विनष्टत्वात्। द्विचन्द्रज्ञानादौ तु चन्द्रैकत्वज्ञानेन पारमार्थिकतिमिरादिदोषस्य द्विचन्द्रज्ञानहेतोः अविनष्टत्वाद् बाधितानुवृत्तिः युक्ता। अनुवर्तमानम् अपि प्रबलप्रमाणबाधितत्वेन अकिञ्चित्करम्। इह तु भेदज्ञानस्य सविषयस्य सकारणस्य अपारमार्थिकत्वेन वस्तुयाथात्म्यज्ञानविनष्टत्वात् न कथञ्चिद् अपि बाधितानुवुत्तिः संभवति। अतः सर्वेश्वरस्य इदानीन्तनगुरुपरम्परायाः च तत्त्वज्ञानम् अस्ति चेद् भेददर्शनतत्कार्योपदेशाद्यसंभवः। भेददर्शनमस्ति इति चेद्, अज्ञानस्य तद्धेतोः स्थितत्वेन अज्ञत्वाद् एव सुतराम् उपदेशो न संभवति।किं च गुरोः अद्वितीयात्मविज्ञानाद् एव ब्रह्माज्ञानस्य सकार्यस्य विनष्टत्वात् शिष्यं प्रति उपदेशो निष्प्रयोजनः। गुरुः तज्ज्ञानं च कल्पितम् इति चेत्, शिष्यतज्ज्ञानयोः अपि कल्पितत्वात् तदपि अनिवर्त्तकम्। कल्पितत्वेऽपि पूर्वविरोधित्वेन निवर्त्तकम् इति चेत्, तदाचार्यज्ञानेऽपि समानम् इति तद् एव निवर्तकं भवति, इति उपदेशानर्थक्यम् एव; इति कृतम् असमीचीनवादैः निरस्तैः ।।2.12।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.12 Indeed, I, the Lord of all, who is eternal, was never non-existent, but existed always. It is not that these selves like you, who are subject to My Lordship, did not exist; you have always existed. It is not that 'all of us', I and you, shall cease to be 'in the future', i.e., beyond the present time; we shall always exist. Even as no doubt can be entertainted that I, the Supreme Self and Lord of all, am eternal, likewise, you (Arjuna and all others) who are embodied selves, also should be considered eternal.The foregoing implies that the difference between the Lord, the sovereign over all, and the individual selves, as also the differences among the individual selves themselves, are real. This has been declared by the Lord Himself. For, different terms like 'I', 'you', 'these', 'all' and 'we' have been used by the Lord while explaining the truth of eternality in order to remove the misunderstanding of Arjuna who is deluded by ignorance.Now follows a refutation of the Upadhi theory of Bhaskara and the Ignorance theory of the Advaitins which deny any ultimate difference between the Lord and the Jivas.If we examine (Bhaskara's) theory of Upadhis (adjuncts), which states that the apparent differences among Jivas are due to adjuncts, it will have to be admitted that mention about differences is out of place when explaining the ultimate truth, because the theory holds that there are no such differences in reality. But that the differences mentioned by the Lord are natural, is taught by the Sruti also: 'Eternal among eternals, sentient among sentients, the one, who fulfils the desires of the many' (Sve. U. VI. 13, Ka. U. V. 13).The meaning of the text is: Among the eternal sentient beings who are countless, He, who is the Supreme Spirit, fulfils the desires of all.'As regards the theory of the Advaitins that the perception of difference is brought about by ignorance only and is not really real, the Supreme Being --- whose vision must be true and who, therefore must have an immediate cognition of the differencelss and immutable and eternal consciousness as constituting the nature of the Atman in all authenticity, and who must thereby be always free from all ignorance and its effects --- cannot possibly perceive the so-called difference arising from ignornace. It is, therefore, unimaginable that He engages himself in activities such as teaching, which can proceed only from such a perception of differences arising from ignorance.The argument that the Supreme Being, though possessed of the understanding of nom-duality, can still have the awareness of such difference persisting even after sublation, just as a piece of cloth may have been burnt up and yet continues to have the appearance of cloth, and that such a continuance of the subltated does not cause bondage --- such an argument is invalid in the light of another analogy of a similar kind, namely, the perception of the mirage, which, when understood to be what it is, does not make one endeavour to fetch water therefrom. In the same way even if the impression of difference negated by the non-dualistic illumination persists, it cannot impel one to activities such as teaching; for the object to whom the instruction is to be imparted is discovered to be unreal. The idea is that just as the discovery of the non-existence of water in a mirage stops all effort to get water from it, so also when all duality is sublated by illumination, no activity like teaching disciples etc., can take place.Nor can the Lord be conceived as having been previously ignorant and as attaining knowledge of unity through the scirptures, and as still being subject to the continuation of the stultified experiences. Such a position would stand in contradiction to the Sruti and the Smrti: 'He, who is all-comprehender' (Mun. U., 1. 1. 9); all knower and supreme and natural power of varied types are spoken of in Srutis, such as knowledge, strength and action' (Sve. U. 6. 8); 'I know, Arjuna, all beings of the past, present and future but no one knows Me,' etc. (Gita 7. 26).And again, if the perception of difference and distinction are said to persist even after the unitary Self has been decisively understood, the question will arise --- to whom will the Lord and the succession of teachers of the tradition impart the knowledge in accordance with their understanding? The question needs an answer. The idea is that knowledge of non-duality and perception of differences cannot co-exist. If it be replied by Advaitins holding the Bimba-Pratibimba (the original and reflections) theory that teachers give instructions to their own reflections in the form of disciples such as Arjuna, it would amount to an absurdity.For, no one who is not out of his senses would undertake to give any instruction to his own reflections in mediums such as a precious stone, the blade of a sword or a mirror, knowing, as he does, that they are non-different from himself. The theory of the persistence of the sublated is thus impossible to maintain, as the knowledge of the unitary self destroys the beginningless ignorance in which differences falling outside the self are supposed to be rooted. 'The persistence of the sublated' does occur in cases such as the vision of the two moons, where the cause of the vision is the result of some real defect in eyesight, nor removable by the right understanding of the singleness of the moon. Even though the perception of the two moons may continue, the sublated cognition is rendered inconsequential on the strength of strong contrary evidence. For, it will not lead to any activity appropriate for a real experience.But in the present context (i.e. the Advaitic), the conception of difference, whose object and cause are admittedly unreal, is cancelled by the knowledge of reality. So the 'persistence of the sublated' can in no way happen. Thus, if the Supreme Lord and the present succession of preceptors have attained the understanding of (Non-dual) reality, their perception of difference and work such as teaching proceeding from that perception, are impossible. If, on the other hand, the perception of difference persists because of the continuance of ignorance and its cause, then these teachers are themselves ignorant of the truth, and they will be incapable of teaching the truth.Further, as the preceptor has attained the knowledge of the unitary self and thereby the ignorance concerning Brahman and all the effects of such ignorance are thus annihilated, there is no purpose in instructing the disciple. It it is held that the preceptor and his knowledge are just in the imagination of the disciple, the disciple and his knowledge are similarly the product of the imagination of the preceptor, and as such can not put an end to the ignorance in question. If it is maintained that the disciple's knowledge destroys ignorance etc., because it contradicts the antecedent state of non-enlightenment, the same can be asserted of the preceptor's knowledge. The futility of such teachings is obvious. Enough of these unsound doctrines which have all been refuted.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कुत इत्यपेक्षायां शोच्यास्तु ते भवन्ति ये उत्पन्ना म्रियन्ते, ते त्वात्मान इत्येषामुत्पत्तिरेव न सम्भवतीत्यात्मवादेनोत्पत्तिं निराकुर्वन्नशोच्यतामाह -- न त्वेवाहमिति।'अहं यूयं सत्यवार्य इमे च द्वारकौकसः' इतिवत्कालत्रयेऽपि देहस्येवात्मनो भवनं निवारयति भगवान्। नैव त्वमहं परमात्मोत्पन्नोऽस्मि, जातु कदाचिन्नासं न तथाऽभूवं वा, नोत्पन्नोऽसि वाऽभूश्च, इमे पुरः स्थिता जनाधिपाश्च नोत्पन्नाः, किन्तु सर्वदा नित्याः शुद्धाश्चेतना एवात्मान इत्यशोच्याः। "नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्" कठो.5।13श्वे.उ.6।13 इत्यादिश्रुतेरात्मनामुत्पत्तिरूपो विकारो निराकृतः ।।2.12।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नत्वेवेत्याद्येकोनविंशतिश्लोकैः'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्' इत्यस्य विवरणं क्रियते,'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' इत्याद्यष्टभिः श्लोकैः।'प्रज्ञावादांश्च भाषसे' इत्यस्य मोहद्वयस्य पृथक्प्रयत्ननिराकर्तव्यत्वात्। तत्र स्थूलशरीरादात्मानं विवेक्तुं नित्यत्वं साधयति। तुशब्दो देहादिभ्यो व्यतिरेकं सूचयति। यथा अहमितः पूर्वं जातु कदाचिदपि नासमिति नैव, अपितु आसमेव, तथा त्वमप्यासीः, इमे जनाधिपाश्चासन्नेव। एतेन प्रागभावाप्रतियोगित्वं दर्शितम्। तथा सर्वे वयं अहं त्वं इमे जनाधिपाश्चातःपरं नभविष्याम इति न अपितु भविष्याम एवेति ध्वंसाप्रतियोगित्वमुक्तम्। अतः कालत्रेयऽपि सत्तायोगित्वादात्मनो नित्यत्वेनानित्याद्देहाद्वैलक्षण्यं सिद्धमित्यर्थः ।।2.12।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
किमिति। न त्वेवाहम्। ईश्वरनित्यत्वस्याप्रस्तुतत्वाद्दृष्टान्तत्वेनाह -- न त्वेवेति। यथाऽहं नित्यः सर्ववेदान्तेषु प्रसिद्धः, एवं त्वमेते जनाधिपाश्च नित्याः ।।2.12।।

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