गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-27


मूल स्लोकः

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।




English translation by Swami Sivananda
1.27. (He saw) fathers-in-law and friends also in both the armies.The son of Kunti, Arjuna, seeing all those kinsmen thus standing arrayed,spoke this, sorrowfully filled with deep pity.


English commentary by Swami Sivananda
1.27 श्वशुरान् fathers-in-law, सुहृदः friends, च and, एव also, सेनयोः in armies, उभयोः (in) both, अपि also, तान् those, समीक्ष्य having seen, सः he, कौन्तेयः Kaunteya, सर्वान् all, बन्धून् relatives, अवस्थितान् standing (arrayed), कृपया by pity, परया deep, आविष्टः filled, विषीदन् sorrowfully, इदम् this, अब्रवीत् said.No Commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अपनी-अपनी जगहपर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवोंको देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले ।।1.27।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य -- पूर्वश्लोकके अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुनने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई सम्बन्धियोंको दोनों सेनाओंमें स्थित देखा।स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः -- इन पदोंमें स कौन्तेयः कहनेका तात्पर्य है कि माता कुन्तीने जिनको युद्ध करनेके लिये सन्देश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरतामें आकर ' मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं?' -- ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णको दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा दी थी, वे ही कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त हो जाते हैं! दोनों ही सेनाओंमें जन्मके और विद्याके सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखनेसे अर्जुनके मनमें यह विचार आया कि युद्धमें चाहे इस पक्षके लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्धकी इच्छा तो मिट गयी और भीतरमें कायरता आ गयी। इस कायरताको भगवान्ने आगे (2। 2-3 में) कश्मलम् तथा हृदयदौर्बल्यम् कहा है, और अर्जुनने (2। 7 में) कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः कहकर इसको स्वीकार भी किया है।अर्जुन कायरतासे आविष्ट हुए हैं -- कृपयाविष्टः इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होनेसे यह ठहरेगी नहीं। परन्तु शूरवीरता अर्जुनमें स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही।अत्यन्त कायरता क्या है? बिना किसी कारण निन्दा, तिरस्कार, अपमान करनेवाले, दुःख देनेवाले, वैरभाव रखनेवाले, नाश करनेकी चेष्टा करनेवाले दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि आदिको अपने सामने युद्ध करनेके लिये खड़े देखकर भी उनको मारनेका विचार न होना, उनका नाश करनेका उद्योग न करना -- यह अत्यन्त कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुनको कायरतारूप दोषने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदिका अनिष्ट चाहनेवाले और समय-समयपर अनिष्ट करनेका उद्योग करनेवाले हैं, उन अधर्मियों -- पापियोंपर भी अर्जुनको करुणा आ रही है (गीता 1। 35, 46) और वे क्षत्रियके कर्तव्यरूप अपने धर्मसे च्युत हो रहे हैं।विषीदन्निदमब्रवीत् -- युद्धके परिणाममें कुटुम्बकी, कुलकी, देशकी क्या दशा होगी -- इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्थामें वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगेके श्लोकोंमें किया गया है ।।1.27।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.27 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.27 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.27।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- संजय उवाच -- स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत् ।।1.27।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.26 - 1.47 Arjuna said --- Sanjaya said -- Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.'He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
'तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः' 1-26 इत्यारभ्य'एवमुक्त्वाऽर्जुनः' 1।46 इत्यन्तं लोकसम्बन्धाभिमानेन अर्जुनः कातर्यतः स्वावस्थां निवेदयति ।।1.26 -- 1.27।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तत्र समरसभारम्भार्थं सैन्यदर्शने भगवताभ्यनुज्ञाते सति सेनयोरूभयोरपि स्थितान्पार्थोऽपश्यदित्यन्वयः। अथशब्दस्तथाशब्दपर्यायः। परसेनायां पितृ़न्पितृव्यान्भूरिश्रवःप्रभृतीन्, पितामहान्भीष्मसोमदत्तप्रभृतीन्, आचार्यान्द्रोणकृपप्रभृतीन, मातुलाञ्शल्यशकुनिप्रभृतीन्, भ्रातृ़न्दुर्योधनप्रभृतीन्, पुत्रान्लक्ष्मणप्रभृतीन्, पौत्रान्लक्ष्मणादिपुत्रान्, सखीन् अश्वत्थामजयद्रथप्रभृतीन्वयस्यान्, श्वशुरान्भार्याणां जनयितृ़न्, सुहृदो मित्राणि कृतवर्मभगदत्तप्रभृतीन्। सुहृद इत्यनेन यावन्तः कृतोपकारा मातामहादयश्च ते द्रष्टव्याः। एंव स्वसेनायामप्युलक्षणीयम्। एवं स्थिते महानधर्मों हिंसेति विपरीतबुद्ध्या मोहाख्यया शास्त्रविहितत्वेन धर्मत्वमिति ज्ञानप्रतिबन्धकेन च ममकारनिबन्धनेन चित्तवैकल्व्येन शोकमोहाख्येनाभिभूतविवेकस्यार्जुनस्य पूर्वमारब्धाद्युद्धाख्यात्स्वधर्मादुपरिरंसा महानर्थपर्यवसायिनी प्रवृत्तेति दर्शयति -- कौन्तेय इति स्त्रीप्रभत्वकीर्तनं पार्थवत्तादात्विकमूढतामपेक्ष्य कर्त्र्या स्वव्यापारेणैवाविष्टो व्याप्तः नतु कृपां केनचिद्व्यापारेणाविष्ट इति स्वतःसिद्धैवास्य कृपेति सूच्यते। एतत्प्रकटीकरणाय परयेति विशेषणम्। अपरयेति वा छेदः। स्वसैन्ये पुरापि कृपाभूदेव तस्मिन्समये तु कौरवसैन्येऽप्यपरा कृपाभूदित्यर्थः। विषीदन्विषादमुपतापं प्राप्नुवन्नब्रवीदित्युक्तिविषादयोः समकालतां वदन् सगद्गदकण्ठताश्रुपातादि विषादकार्यमुक्तिकाले द्योतयति ।। 1.27 ।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.27।।

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