शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-14


मूल स्लोकः

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।




English translation by Swami Sivananda
2.14 The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti, which cause heat and cold, pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.


English commentary by Swami Sivananda
2.14 मात्रास्पर्शाः contacts of senses with objects, तु indeed, कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti), शीतोष्णसुखदुःखदाः producers of cold and heat, pleasure and pain, आगमापायिनः with beginning and end, अनित्याः impermanent, तान् them, तितिक्षस्व bear (thou), भारत O Bharata.Commentary -- Cold is pleasant at one time and painful at another. Heat is pleasant in winter but painful in summer. The same object that gives pleasure at one time gives pain at another time. So the sense-contacts that give rise to the sensations of heat and cold, pleasure and pain come and go. Therefore, they are impermanent in nature. The objects come in contact with the senses or the Indriyas, viz., skin, ear, eye, nose, etc., and the sensations are carried by the nerves to the mind which has its seat in the brain. It is the mind that feels pleasure and pain. One should try to bear patiently heat and cold, pleasure and pain and develop a balanced state of mind. (Cf.V.22)



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वे तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं। वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो ।।2.14।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंसे पहले (11 से 13) और आगे (16 से 30 तक) देही और देह -- इन दोनोंका ही प्रकरण है। फिर बीचमें ' मात्रास्पर्श ' के ये दो श्लोक (प्रकरणसे अलग) कैसे आये? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण जीवोंके नित्य-स्वरूपको बतानेके लिये ' किसी कालमें मैं नहीं था, ऐसी बात नहीं है ' -- ऐसा कहकर अपनेको उन्हींकी पंक्तिमें रख दिया ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थोंको अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बतानेके लिये भगवान्ने यहाँ ' मात्रास्पर्श ' की बात कही है।तु -- नित्य-त्तत्त्वसे देहादि अनित्य वस्तुओंको अलग बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।मात्रास्पर्शाः -- जिनसे माप-तौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है, उन (ज्ञानके साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरणका नाम मात्रा है। मात्रासे अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका संयोग होता है, उनका नाम स्पर्श है। अतः इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्टिके मात्र पदार्थ मात्रास्पर्शाः हैं।यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ, पदार्थोंका सम्बन्ध क्यों न लिया जाय? अगर हम यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थोंका सम्बन्ध ही लें, तो उस सम्बन्धको आगमापायिनः (आने-जानेवाला) नहीं कह सकते; क्योंकि सम्बन्धकी स्वीकृति केवल अन्तःकरणमें न होकर स्वयंमें (अहम्में) होती है। स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है। स्वयं जबतक उस स्वीकृतिको नहीं छोड़ता, तबतक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थोंका वियोग हो जानेपर भी, पदार्थोंके न रहनेपर भी, उन पदार्थोंका सम्बन्ध बना रहता है (टिप्पणी प0 52)। जैसे, कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पतिसे सदाके लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्षके बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुककी स्त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं! इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी-(पति-) के न रहनेपर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है। इस दृष्टिसे उस सम्बन्धको आने-जानेवाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे पदार्थोंका सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं।शीतोष्णसुखदुःखदाः -- यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय-(त्वचा-)के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीतका अर्थ अनुकूलता और उष्णका अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है।मात्र पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं, ऐसी अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, देश, काल आदिके मिलनेसे सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते, ऐसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके मिलनेसे दुःख होता है। यहाँ अनुकूलता-प्रतिकूलता कारण हैं और सुख-दुःख कार्य हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इन पदार्थोंमें सुख-दुःख देनेकी सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य इनके साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भावना कर लेता है, जिससे ये पदार्थ सुख-दुःख देनेवाले दीखते हैं। अतः भगवान्ने यहाँ सुखदुःखदाः कहा है।आगमापायिनः -- मात्र पदार्थ आदि-अन्तवाले, उत्पत्ति-विनाशशील और आने-जानेवाले हैं। वे ठहरनेवाले नहीं है; क्योंकि वे उत्पत्तिसे पहले नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे। इसलिये वे आगमापायी हैं।अनित्याः -- अगर कोई कहे कि वे उत्पत्तिसे पहले और विनाशके बाद भले ही न हों, पर मध्यमें तो रहते ही होंगे? तो भगवान् कहते हैं कि अनित्य होनेसे वे मध्यमें भी नहीं रहते। वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। इतनी तेजीसे बदलते हैं कि उनको उसी रूपमें दुबारा कोई देख ही नहीं सकता; क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे, दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं। इसलिये भगवान्ने उनको अनित्याः कहा है।केवल वे पदार्थ ही अनित्य, परिवर्तनशील नहीं हैं, प्रत्युत जिनसे उन पदार्थोंका ज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं। उनके परिवर्तनको कैसे समझें? जैसे दिनमें काम करते-करते शामतक इन्द्रियों आदिमें थकावट आ जाती है, और सबेरे तृप्तिपूर्वक नींद लेनेपर उनमें जो ताजगी आयी थी, वह शामतक नहीं रहती। इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है, जिससे इन्द्रियोंकी थकावट मिटती है और ताजगीका अनुभव होता है। जैसे जाग्रत्-अवस्थामें प्रतिक्षण थकावट आती रहती है, ऐसे ही नींदमें प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है।यहाँ मात्र पदार्थोंको स्थूलरूपसे आगमापायिनः और सूक्ष्मरूपसे अनित्याः कहा गया है। इनको अनित्यसे भी सूक्ष्म बतानेके लिये आगे सोलहवें श्लोकमें इनको असत् कहेंगे; और पहले जिस नित्य-तत्त्वका वर्णन हुआ है, उसको सत् कहेंगे।तांस्तितिक्षस्व -- ये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं, उनके सामने आनेपर ' यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है ' -- ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको लेकर अन्तःकरणमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है। अतः अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी राग-द्वेषादि विकारोंको पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शोंमें निर्विकार रहना ही उनको सहना है। इस सहनेको ही भगवान्ने तितिक्षस्व कहा है।दूसरा भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिकी क्रियाओँका, अवस्थाओंका आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है। वे क्रियाएँ, अवस्थाएँ तुम्हारेमें नहीं हैं; क्योंकि तुम उनको जाननेवाले हो, उनसे अलग हो। तुम स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हो। अतः उन क्रियाओंमें, अवस्थाओंमें तुम निर्विकार रहो। इनमें निर्विकार रहना ही तितिक्षा है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें मात्रास्पर्शोंकी तितिक्षाकी बात कही। अब ऐसी तितिक्षासे क्या होगा -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.14।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- मात्रा आभिः मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि। मात्राणां स्पर्शाः शब्दादिभिः संयोगाः। ते शीतोष्णसुखदुःखदाः शीतम् उष्णं सुखं दुःखं च प्रयच्छन्तीति। अथवा स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः विषयाः शब्दादयः। मात्राश्च स्पर्शाश्च शीतोष्णसुखदुःखदाः। शीतं कदाचित् सुखं कदाचित् दुःखम्। तथा उष्णमपि अनियतस्वरूपम्। सुखदुःखे पुनः नियतरूपे यतो न व्यभिचरतः। अतः ताभ्यां पृथक् शीतोष्णयोः ग्रहणम्। यस्मात् ते मात्रास्पर्शादयः आगमापायिनः आगमापायशीलाः तस्मात् अनित्याः। अतः तान् शीतोष्णादीन् तितिक्षस्व प्रसहस्व। तेषु हर्षं विषादं वा मा कार्षीः इत्यर्थः।।शीतोष्णादीन् सहतः किं स्यादिति श्रृणु -- ।।2.14।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.14 'In the case of a man who knows that the Self is eternal, although there is no possibility of delusion concerning the destruction of the Self, still delusion, as of ordinary people, caused by the experience of cold, heat, happiness and sorrow is noticed in him. Delusion arises from being deprived of happiness, and sorrow arises from contact with pain etc.' apprehending this kind of a talk from Arjuna, the Lord said, 'But the contacts of the organs,' etc.Matra-sparsah, the contacts of the organs with objects; are sita-usna-sukha-duhkha-dah, producers of cold, heat, happiness and sorrow. Matrah means those by which are marked off (measured up) sounds etc., i.e. the organs of hearing etc. The sparsah, contacts, of the organs with sound etc. are matra-sparsah. Or, sparsah means those which are contacted, i.e. objects, viz sound etc. Matra-sparsah, the organs and objects, are the producers of cold, heat, happiness and sorrow.Cold sometimes produces pleasure, and sometimes pain. Similarly the nature of heat, too, is unpredictable. On the other hand, happiness and sorrow have definite natures since they do not change. Hence they are mentioned separately from cold and heat. Since they, the organs, the contacts, etc., agamapayinah, have a beginning and an end, are by nature subject to origination and destruction; therefore, they are anityah, transient. Hence, titiksasva, bear; tan, them -- cold, heart, etc., i.e. do not be happy or sorry with regard to them.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यद्यपि 'आत्मा नित्य है' ऐसे जाननेवाले ज्ञानीको आत्म-विनाश-निमित्तक मोह होना तो सम्भव नहीं, तथापि शीत-उष्ण और सुख-दुःख-प्राप्ति-जनित लौकिक मोह तथा सुख-वियोग-जनित और दुःख-संयोग-जनित शोक भी होता हुआ देखा जाता है, ऐसे अर्जुनके वचनोंकी आशंका करके भगवान् कहते हैं -- मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयोंको जिनसे जाना जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयोंके साथ उनके संयोग, वे सब शीत-उष्ण और सुख-दुःख देने वाले हैं अर्थात् शीत-उष्ण और सुख-दुःख देते हैं। अथवा जिनका स्पर्श किया जाता है वे स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय, ( इस व्युत्पत्तिके अनुसार यह अर्थ होगा कि ) मात्रा और स्पर्श यानी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और शब्दादि विषय, ( ये सब ) शीत-उष्ण और सुख-दुःख देनेवाले हैं। शीत कभी सुखरूप होता है कभी दुःखरूप, इसी तरह उष्ण भी अनिश्चितरूप है, परंतु सुख और दुःख निश्चितरूप हैं, क्योंकि उनमें व्यभिचार ( फेरफार ) नहीं होता। इसलिये सुख-दुःखसे अलग शीत और उष्णका ग्रहण किया गया है।जिससे कि वे मात्रा-स्पर्शादि ( इन्द्रियाँ, उनके विषय और उनके संयोग ) उत्पत्ति-विनाशशील हैं, इससे अनित्य हैं, अतः उन शीतोष्णादिको तू सहन कर अर्थात् उनमें हर्ष और विषाद मत कर ।।2.14।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः साश्रयाः तन्मात्राकार्यत्वात् मात्रा इति उच्यन्ते। श्रोत्रादिभिः तेषां स्पर्शाः शीतोष्णमृदुपरुषादिरूपसुखदुःखदा भवन्ति। शीतोष्णशब्दः प्रदर्शनार्थः, तान् धैर्येण यावद्युद्धादिशास्त्रीयकर्मसमाप्ति तितिक्षस्व। ते च आगमापायित्वाद् धैर्यवतां क्षन्तुं योग्याः। अनित्याः च एते बन्धहेतुभूतकर्मनाशे सति, आगमापायित्वेन अपि निवर्तन्ते इत्यर्थः।तत्क्षान्तिः किमर्था? इत्यत आह -- ।।2.14।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.14 As sound, touch, form, taste and smell with their bases, are the effects of subtle elements (Tanmatras), they are called Matras. The contact with these through the ear and other senses gives rise to feelings of pleasure and pain, in the form of heat and cold, softness and hardness. The words 'cold and heat' illustrate other sensations too. Endure these with courage till you have discharged your duties as prescribed by the scriptures. The brave must endure them patiently, as they 'come and go'. They are transient. When the Karmas, which cause bondage, are destroyed, this 'coming and going' will end.The Lord now explains the purpose of this endurance:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
ननु धैर्यमेव तन्नायाति, यतो न मूढः स्यामिति चेत्तत्प्राप्त्युपायमाह -- मात्रास्पर्शा इति। मात्रा रूपादयस्तासां स्पर्शा इन्द्रियाख्याः इन्द्रियैर्वा स्पर्शाः योगाः शीतादिद्वन्द्वाः, तेचागमापायिनोऽनित्यास्तान्विशिष्टानेव सहस्व। सर्वसहनं हि साङ्ख्ये योगे चावश्यकं ततो धीरस्य न मोहः ।।2.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वात्मनो नित्यत्वे विभुत्वे च न विवदामः, प्रतिदेहमेकत्वं तु न सहामहे। तथाहि 'बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाख्यनवविशेषगुणवन्तः प्रतिदेहं भिन्नाः, एवं नित्या विभवश्चात्मानः' इति वैशेषिका मन्यन्ते। इममेवच पक्षं तार्किकमीमांसकादयोऽपि प्रतिपन्नाः। सांख्यास्तु विप्रतिपद्यमाना अप्यात्मनो गुणवत्त्वे प्रतिदेहं भेदे न विप्रतिपद्यन्ते। अन्यथा सुखदुःखादिसंकरप्रसङ्गात्। तथाच भीष्मादिभिन्नस्य मम नित्यत्वे विभुत्वेऽपि सुखदुःखादियोगित्वाद्भीष्मादिबन्धुदेहविच्छेदे सुखवियोगो दुःखसंयोगश्च स्यादिति कथं शोकमोहौ नानुचितावित्यर्जुनाभिप्रायमाशङ्क्य लिङ्गशरीरविवेकायाह -- मीयन्ते आभिर्विषया इति मात्रा इन्द्रियाणि तासां स्पर्शा विषयैः संबन्धास्तत्तद्विषयाकारान्तःकरणपरिणामा वा ते आगमापायिन उत्पत्तिविनाशवतोऽन्तःकरणस्यैव शीतोष्णादिद्वारा सुखदुःखदाः नतु नित्यस्य विभोरात्मनः। तस्य निर्गुणात्वान्निर्विकारत्वाच्च। नहि नित्यस्यानित्यधर्माश्रयत्वं संभवति, धर्मधर्मिणोरभेदात्संबन्धान्तरानुपपत्तेः। साक्ष्यस्य साक्षिधर्मत्वानुपपत्तेश्च। तदुक्तम् -- 'नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः।।' इति। तथाच सुखदुःखाद्याश्रयीभूतान्तःकरणभेदादेव सर्वव्यवस्थोपपत्तेर्न निर्विकारस्य सर्वभासकस्यात्मनो भेदे मानमस्ति, सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वत्रानुगमात्। अन्तःकरणस्य तावत्सुखदुःखादौ जनकत्वमुभयवादिसिद्धम्। तत्र समवायिकारणत्वस्यैवाभ्यर्हितत्वात्तदेव कल्पयितुमुचितं नतु समवायिकारणान्तरानुपस्थितौ निमित्तत्वमात्रम्। तथाच'कामः संकल्पः' इत्यादिश्रुतिः'एतत्सर्वं मन एव' इति कामादिसर्वविकारोपादानत्वमभेदनिर्देशान्मनस आह। आत्मनश्च स्वप्रकाशज्ञानानन्दरूपत्वस्य श्रुतिभिर्बोधनान्न कामाद्याश्रयत्वम्, अतो वैशेषिकादयो भ्रान्त्यैवात्मनो विकारित्वं भेदं चाङ्गीकृतवन्त इत्यर्थः। अन्तःकरणस्यागमापायित्वात् दृश्यत्वाच्च नित्यदृग्रूपात्त्वत्तो भिन्नस्य सुखादिजनका ये मात्रास्पर्शास्तेऽप्यनित्या अनियतरूपाः, एकदा सुखजनकस्यैव शीतोष्णादेरन्यदा दुःखजनकत्वदर्शनात्। एवं कदचिद्दुःखजनकस्याप्यन्यदा सुखजनकत्वदर्शनात्। शीतोष्णग्रहणमाध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकसुखदुःखोपलक्षणार्थम्। शीतमुष्णं च कदाचित्सुखं कदाचिद्दुःखं सुखदुःखे तु न कदापि विपर्ययेते इति पृथङ्निर्देशः। तथा चात्यन्तास्थिरान् त्वद्भिन्नस्य विकारिणः सुखदुःखादिप्रदान्भीष्मादिसंयोगवियोगरूपान्मात्रास्पर्शांस्त्वं तितिक्षस्व, नैते मम किंचित्करा इति विवेकेनोपेक्षस्व। दुःखितादात्माध्यासेनात्मानं दुःखिनं मा ज्ञासीरित्यर्थः। कौन्तेय भारतेति संबोधनद्वयेनोभयकुलविशुद्धस्य तवाज्ञानमनुचितमिति सूचयति ।।2.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तथापि तद्दर्शनाभाविदना शोक इति चेत्, न इत्याह -- 'मात्रास्पर्शा इति'। मीयन्त इति मात्रा विषयाः, तेषां स्पर्शाः सम्बन्धाः, त एव शीतोष्णसुखदुःखदाः। देहे शीतोष्णादिसम्बन्धाद्धि शीतोष्णाद्यनुभव आत्मनः। ततश्च सुखदुःखे।न ह्यात्मनः स्वतो दुःखादिः सम्भवति। कुतः? आगमापायित्वात्। यद्यात्मनः स्वतः स्युः सुप्तावपि स्युः। अतो यतो ते मात्रास्पर्शा जाग्रदादावेव सन्ति, नान्यदेति तदन्वव्यतिरेकित्वात्तन्निमित्ता एव, नात्मनः स्वतः। आत्मनश्च तैर्विषयविषयीभावादन्यः सम्बन्धो नास्ति। न चागमापायित्वेऽपि प्रवाहरूपेणाऽपि नित्यत्वमस्ति, सुप्तिप्रलयादावभावादित्याह -- 'अनित्या इति'। अत आत्मनो देहाद्यात्प्रभ्रम एव दुःखकारणम्। अतस्तद्विमुक्तस्य बन्धुमरणादौ दुःखं न भवति। अतोऽभिमानं परित्यज्य तान् शीतोष्णादींस्तितिक्षस्व ।।2.14।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें