गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-03


मूल स्लोकः

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।




English translation by Swami Sivananda
1.3. "Behold, O Teacher! this mighty army of the sons of Pandu,arrayed by the son of Drupada, thy wise disciple.


English commentary by Swami Sivananda
1.3 पश्य behold, एताम् this, पाण्डुपुत्राणाम् of the sons of Pandu, आचार्य O Teacher, महतीम् great, चमूम् army, व्यूढाम् arrayed, द्रुपदपुत्रेण son of Drupada, तव शिष्येण by your disciple, धीमता wise.No Commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नके द्वारा व्यूहरचनासे खड़ी की हुई पाण्डवोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ।।1.3।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- आचार्य -- द्रोणके लिये ' आचार्य ' सम्बोधन देनेमें दुर्योधनका यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके -- कौरवों और पाण्डवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखानेवाले होनेसे आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मनमें किसीका पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये।तव शिष्येण धीमता -- इन पदोंका प्रयोग करनेमें दुर्योधनका भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारनेके लिये पैदा होनेवाले धृष्टद्युम्नको भी आपने अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारनेके लिये आपसे ही अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सीखी है।द्रुपदपुत्रेण -- यह पद कहनेका आशय है कि आपको मारनेके उद्देश्यको लेकर ही द्रुपदने याज और उपयाज नामक ब्राह्मणोंसे यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न आपके सामने (प्रतिपक्षमें) सेनापतिके रूपमें खड़ा है।यद्यपि दुर्योधन यहाँ ' द्रुपदपुत्र ' के स्थानपर ' धृष्टद्युम्न ' भी कह सकता था, तथापि द्रोणाचार्यके साथ द्रुपद जो वैर रखता था, उस वैरभावको याद दिलानेके लिये दुर्योधन यहाँ द्रुपदपुत्रेण शब्दका प्रयोग करता है कि अब वैर निकालनेका अच्छा मौका है।पाण्डुपुत्राणाम् एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य -- द्रुपदपुत्रके द्वारा पाण्डवोंकी इस व्यूहाकार खड़ी हुई बड़ी भारी सेनाको देखिये। तात्पर्य है कि जिन पाण्डवोंपर आप स्नेह रखते हैं, उन्हीं पाण्डवोंने आपके प्रतिपक्षमें खास आपको मारनेवाले द्रुपदपुत्रको सेनापति बनाकर व्यूह-रचना करनेका अधिकार दिया है। अगर पाण्डव आपसे स्नेह रखते तो कम-से-कम आपको मारनेवालेको तो अपनी सेनाका मुख्य सेनापति नहीं बनाते, इतना अधिकार तो नहीं देते। परन्तु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसीको सेनापति बनाया है।यद्यपि कौरवोंकी अपेक्षा पाण्डवोंकी सेना संख्यामें कम थी अर्थात् कौरवोंकी सेना ग्यारह अक्षौहिणी (टिप्पणी प0 5) और पाण्डवोंकी सेना सात अक्षौहिणी थी, तथापि दुर्योधन पाण्डवोंकी सेनाको बड़ी भारी बता रहा है। पाण्डवोंकी सेनाको बड़ी भारी कहनेमें दो भाव मालूम देते हैं -- (1) पाण्डवोंकी सेना ऐसे ढंगसे व्यूहाकार खड़ी हुई थी, जिससे दुर्योधनको थोड़ी सेना भी बहुत ब़ड़ी दीख रही थी और (2) पाण्डव-सेनामें सब-के-सब योद्धा एक मतके थे। इस एकताके कारण पाण्डवोंकी थोड़ी सेना भी बलमें, उत्साहमें बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेनाको दिखाकर दुर्योधन द्रोणाचार्यसे यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेनाको सामान्य और छोटी न समझें। आप विशेष बल लगाकर सावधानीसे युद्ध करें। पाण्डवोंका सेनापति है तो आपका शिष्य द्रुपदपुत्र ही; अतः उसपर विजय करना आपके लिये कौन-सी बड़ी बात है। एतां पश्य कहनेका तात्पर्य है कि यह पाण्डव-सेना युद्धके लिये तैयार होकर सामने खड़ी है। अतः हमलोग इस सेनापर किस तरहसे विजय कर सकते हैं -- इस विषयमें आपको जल्दी-से-जल्दी निर्णय लेना चाहिये।सम्बन्ध -- द्रोणाचार्यसे पाण्डवोंकी सेना देखनेके लिये प्रार्थना करके अब दुर्योधन उन्हें पाण्डव-सेनाके महारथियोंको दिखाता है ।।1.3।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.3 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.3 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.3।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
धृतराष्ट्र उवाच -- सञ्जय उवाच -- दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत् ।।1.3।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said --- Sanjaya said -- Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adequacy of Bhima's forces for conquering the Kaurava forces and the inadequacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within.Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to conquer the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory.Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior --- by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत् ।।1.2 -- 1.11।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तदेव वाक्यविशेषरूपं वचनमुदाहरति -- 'पश्यैतामित्यादिना'।'तस्य संजनयन्हर्षम्' इत्यतः प्राक्तनेन, पाण्डवेषु प्रियशिष्येष्वतिस्निग्धहृदयत्वादाचार्यो युद्धं न करिष्यतीति संभाव्य तस्मिन्परेषामवज्ञां विज्ञापयन् तस्य क्रोधातिशयमुत्पादयितुमाह। एतामत्यासन्नत्वेन भवद्विधानपि महानुभावानवगणय्य भयशून्यत्वेन स्थितां पाण्डुपुत्राणां चमूं महतीमनेकाक्षौहिणीसहितत्वेन दुर्निवारां पश्यापरोक्षीकुरु। प्रार्थनायां लोट्। अहं शिष्यत्वात्त्वामाचार्यं प्रार्थय इत्याह -- 'आचार्येति'। दृष्ट्वा च तत्कृतामवज्ञां स्वयमेव ज्ञास्यसीति भावः। ननु तदीयावज्ञा सोढव्यैवास्माभिः प्रतिकर्तुशक्यत्वादित्याशङ्क्य तन्निरसनं तव सुकरमेवेत्याह -- 'व्यूढां तव शिष्येणेति'। शिष्यापेक्षया गुरोराधिक्यं सर्वसिद्धमेव। व्यूढां तु धृष्टद्युम्नेनेत्यनुक्त्वा द्रुपदपुत्रेणेति कथनं द्रुपदपूर्ववैरसूचनेन क्रोधोद्दीपनार्थम्। धीमतेति पदमनुपेक्षणीयत्वसूचनार्थम्। व्यासङ्गान्तरनिराकरणेन त्वरातिशयार्थं पश्येति प्रार्थनम्। अन्यच्च हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य, नतु मम। तेषु स्नेहातिशयात्। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति त्वद्वधार्थमुत्पन्नोऽपि त्वयाध्यापित इति तव मौढ्यमेव ममानर्थकारणमिति सूचयति। शत्रोस्तव सकाशात्त्वद्वधोपायभूता विद्या गृहीतेति तस्य धीमत्त्वम्। अतएव तच्चमूदर्शनेनानन्दस्तवैव भविष्यति भ्रान्तत्वान्नान्यस्य कस्यचिदपि। यंप्रतीयं प्रदर्शनीयेति त्वमेवैतां पश्येत्याचार्यंप्रति तत्सैन्यं प्रदर्शयन्निगूढं द्वेषं द्योतयति। एवंच यस्य धर्मक्षेत्रं प्राप्याचार्येऽपीदृशी दृष्टबुद्धिस्तस्य काऽनुतापशङ्का सर्वाभिशङ्कित्वेनातिदुष्टाशयत्वादिति भावः ।।1.3।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.3।।

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