शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-30


मूल स्लोकः

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।




English translation by Swami Sivananda
2.30 This, the Indweller in the body of everyone, is ever indestructible, O Arjuna; therefore, thou shouldst not grieve for any creature.


English commentary by Swami Sivananda
2.30 देही indweller, नित्यम् always, अवध्यः indestructible, अयम् this, देहे in the body, सर्वस्य of all, भारत O Bharata, तस्मात् therefore, सर्वाणि (for) all, भूतानि creatures, न not, त्वम् thou, शोचितुम् to grieve, अर्हसि (thou) shouldst.Commentary: The body of any creature may be destroyed but the Self cannot be killed. Therefore you should not grieve regarding any creature whatever, Bhishma or anybody else.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।।2.30।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर-जङ्गम् सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें यह देही नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी है।अवध्यः शब्दके दो अर्थ होते हैं -- (1) इसका वध नहीं करना चाहिये और (2) इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात् कभी किसी भी अवस्थामें गायको नहीं मारना चाहिये; क्योंकि गायको मारनेमें बड़ा भारी दोष है, पाप है। परन्तु देहीके विषयमें ' देहीका वध नहीं करना चाहिये ' -- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत इस देहीका वध (नाश) कभी किसी भी तरहसे हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता -- विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति (2। 17)।तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि -- इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस देहीका विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता।यहाँ सर्वाणि भूतानि पदोंमें बहुवचन देनेका आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये।शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान् है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परन्तु जो अपना नित्य-स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकको जान लिया जाय तो फिर शोक होना सम्भव ही नहीं है।प्रकरण सम्बन्धी विशेष बातयहाँ ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है, यह विशेषरूपसे देही देह, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, अविनाशी-विनाशी -- इन दोनोंके विवेकके लिये अर्थात् इन दोनोंको अलग-अलग बतानेके लिये ही है। कारण कि जबतक ' देही अलग है और देह अलग है' -- यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई-सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये भी देही-देहके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे अलग देही न हो, तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं, वे चाहे अद्वैतवादी हों, चाहे द्वैतवादी हों; किसी भी मतके क्यो न हों, सभी शरीरी-शरीरके भेदको मानते ही हैं। यहाँ भगवान् इसी भेदको स्पष्ट करना चाहते हैं।इस प्रकरणमें भगवान्ने जो बात कही है, वह प्रायः सम्पूर्ण मनुष्योंके अनुभवकी बात है। जैसे, देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देहके बदलनेको कौन जानता? पहले बाल्यावस्था थी, फिर जवानी आयी; कभी बीमारी आयी, कभी बीमारी चली गयी -- इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं, पर इन सभी अवस्थाओंको जाननेवाला देही वही रहता है। अतः बदलनेवाला और न बदलनेवाला -- ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिये भगवान्ने इस प्रकरणमें आत्मा-अनात्मा, ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड-चेतन, माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है (टिप्पणी प0 71.1)। कारण कि लोगोंने दार्शनिक बातें केवल सीखनेके लिये मान रखी हैं, उन बातोंको केवल पढ़ाईका विषय मान रखा है। इसको दृष्टिमें रखकर भगवान्ने इस प्रकरणमें दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही, शरीर-शरीरी, असत्-सत्, विनाशी-अविनाशी शब्दोंका ही प्रयोग किया है। जो इन दोनोंके भेदको ठीक-ठीक जान लेता है, उसको कभी किञ्चिन्मात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं, उनका शोक दूर नहीं होता।एक छहों दर्शनोंकी पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है। पढ़ाईमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति और संसार -- ये सभी ज्ञानके विषय होते हैं अर्थात् पढ़ाई करनेवाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म, ईश्वर आदि इन्द्रियों और अन्तःकरणके विषय होते हैं। पढ़ाई करनेवाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है, विद्याका संग्रह करना चाहता है, पर जो साधक मुमुक्षु, जिज्ञासु और भक्त होता है, वह अनुभव करना चाहता है अर्थात् प्रकृति और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके और अपने-आपको जानकर ब्रह्मके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहता है ईश्वरके शरण होना चाहता है।सम्बन्ध -- अर्जुनके मनमें कुटुम्बियोंके मरनेका शोक था और गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था अर्थात् यहाँ कुटुम्बियोंका वियोग हो जायेगा तो उनके अभावमें दुःख पाना पड़ेगा -- यह शोक था और परलोकमें पापके कारण नरक आदिका दुःख भोगना पड़ेगा -- यह भय था। अतः भगवान्ने अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतकका प्रकरण कहा, और अब अर्जुनका भय दूर करनेके लिये क्षात्रधर्म-विषयक आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं ।।2.30।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- देही शरीरी नित्यं सर्वदा सर्वावस्थासु अवध्यः निरवयवत्वान्नित्यत्वाच्च तत्र अवध्योऽयं देहे शरीरे सर्वस्य सर्वगतत्वात्स्थावरादिषु स्थितोऽपि सर्वस्य प्राणिजातस्य देहे वध्यमानेऽपि अयं देही न वध्यः यस्मात्, तस्मात्, भीष्मादीनि सर्वाणि भूतानि उद्दिश्य न त्वं शोचितुमर्हसि।।इह परमार्थतत्त्वापेक्षायां शोको मोहो वा न संभवतीत्युक्तम्। न केवलं परमार्थतत्त्वापेक्षायामेव। किं तु -- ।।2.30।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.30 Because of being partless and eternal, ayam, this dehi, embodied Self; nityam avadhyah, can never be killed, under any condition. That being so, although existing sarvasya dehe, in all bodies, in trees etc., this One cannot be killed on account of Its being allpervasive. Since the indewelling One cannot be killed although the body of everyone of the living beings be killed, tasmat, therefore; tvam, you; na arhasi, ought not; socitum, to grieve; for sarvani bhutani, all (these) beings, for Bhisma and others.Here i.e. in the earlier verse. it has been said that, from the standpoint of the supreme Reality, there is no occasion for sorrow or delusion. (This is so) not merely from the standpoint of the supreme Reality, but --



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
अब यहाँ प्रकरणके विषयका उपसंहार करते हुए कहते हैं -- यह जीवात्मा सर्वव्यापी होनेके कारण सबके स्थावर-जंगम आदि शरीरोंमें स्थित है तो भी अवयवरहित और नित्य होनेके कारण सदा -- सब अवस्थाओंमें अवश्य ही है। जिससे कि सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंका नाश किये जानेपर भी इस आत्माका नाश नहीं किया जा सकता, इसलिये भीष्मादि सब प्राणियोंके उद्देश्यसे तुझे शोक करना उचित नहीं है ।।2.30।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
सर्वस्य देवादिदेहिनो देहे वध्यमाने अपि अयं देही नित्यम् अवध्य इति मन्तव्यः। तस्मात् सर्वाणि देवादिस्थावरान्तानि भूतानि विषमाकाराणि अपि उक्तेन स्वभावेन स्वरूपतः समानानि नित्यानि च। देहगतं तु वैषम्यम् अनित्यत्वं च। ततो देवादीनि सर्वाणि भूतानि उद्दिश्य न शोचितुम् अर्हसि न केवलं भीष्मादीन् प्रति ।।2.30।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.30 The self within the body of everyone such as gods etc., must be considered to be eternally imperishable, though the body can be killed. Therefore, all beings from gods to immovable beings, even though they possess different forms, are all uniform and eternal in their nature as described above. The inequality and the perishableness pertain only to the bodies. Therefore, it is not fit for you to feel grief for any of the beings beginning from gods etc., and not merely for Bhisma and such others.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यतो देही आत्मा जीवो नित्यमवध्यः सर्वस्यानेकविधस्य देहे तस्मात् सर्वाणि भूतानि न शोचितुमर्हसि ।।2.30।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
इदानीं सर्वप्राणिसाधारणभ्रमनिवृत्तिसाधनमुक्तमुपसंहरति -- सर्वस्य प्राणिजातस्य देहे वध्यमानेऽप्ययं देही लिङ्गदेहोपाधिरात्मा वध्यो न भवतीति। नित्यं नियतम्। यस्मात्तस्मात्सर्वाणि भूतानि स्थूलानि सूक्ष्माणि च भीष्मादिभावापन्नान्युद्दिश्य त्वं न शोचितुमर्हसि स्थूलदेहस्याशोच्यत्वमपरिहार्यत्वात्, लिङ्गदेहस्याशोच्यत्वमात्मवदेवावध्यत्वादिति न स्थूलदेहस्य त्वं न शोचितुमर्हसि स्थूलदेहस्याशोच्यत्वमपरिहार्यत्वात्, लिङ्गदेहस्याशोच्यत्वमात्मवदेवावध्यत्वादिति न स्थूलदेहस्य लिङ्गदेहस्यात्मनो वा शोच्यत्वं युक्तिमिति भावः ।।2.30।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.30।।

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