शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-25


मूल स्लोकः

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।




English translation by Swami Sivananda
2.25 This (Self) is said to be unmanifested, unthinkable and unchangeable. Therefore, knowing This to be such, thou shouldst not grieve.


English commentary by Swami Sivananda
2.25 अव्यक्तः unmanifested, अयम् this (Self), अचिन्त्यः unthinkable, अयम् this, अविकार्यः unchangeable, अयम् this, उच्यते is said, तस्मात् therefore, एवम् thus, विदित्वा having known, एनम् this, न not, अनुशोचितुम् to grieve, अर्हसि (thou) oughtest.Commentary: The Self is not an object of perception. It can hardly be seen by the physical eyes. Therefore, the Self is unmanifested. That which is seen by the eyes becomes an object of thought. As the Self cannot be perceived by the eyes, It is unthinkable. Milk when mixed with buttermilk changes its form. The Self cannot change Its form like milk. Hence, It is changeless and immutable. Therefore, thus understanding the Self, thou shouldst not mourn. Thou shouldst not think also that thou art their slayer and that they are killed by thee.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है। अतः इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये ।।2.25।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अव्यक्तोऽयम् -- जैसे शरीर-संसार स्थूलरूपसे देखनेमें आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है।अचिन्त्योऽयम् -- मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते, पर चिन्तनमें आते ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं। परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है।अविकार्योऽयमुच्यते -- यह देही विकार-रहितकहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु इस देहीमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है।यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य -- इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन -- इन चार विशेषणोंके द्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया है। परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं? अतः इस देहीका ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है।तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि -- इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।सम्बन्ध -- अगर शरीरीको निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाय (जो कि सिद्धान्तसे विरुद्ध है), तो भी शोक नहीं हो सकता -- यह बात आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं ।।2.25।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- सर्वकरणाविषयत्वात् न व्यज्यत इति अव्यक्तः अयम् आत्मा। अत एव अचिन्त्यः अयम्। यद्धि इन्द्रियगोचरः तत् चिन्ताविषयत्वमापद्यते। अयं त्वात्मा अनिन्द्रियगोचरत्वात् अचिन्त्यः। अत एव अविकार्यः, यथा क्षीरं दध्यातञ्चनादिना विकारि न तथा अयमात्मा। निरवयवत्वाच्च अविक्रियः। न हि निरवयवं किञ्चित् विक्रियात्मकं दृष्टम्। अविक्रियत्वात् अविकार्यः अयम् आत्मा उच्यते। तस्मात् एवं यथोक्तप्रकारेण एनम् आत्मानं विदित्वा त्वं न अनुशोचितुमर्हसि हन्ताहमेषाम्, मयैते हन्यन्त इति।।आत्मनः अनित्यत्वमभ्युपगम्य इदमुच्यते -- ।।2.25।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.25 Moreover, ucyate, it is said that; ayam, This, the Self; is avyaktah, unmanifest, since, being beyond the ken of all the organs, It cannot be objectified. For this very reason, ayam, This; is acintyah, inconceivable. For anything that comes within the purview of the organs becomes the object of thought. But this Self is inconceivable becuase It is not an object of the organs. Hence, indeed, It is avikaryah, unchangeable. This Self does not change as milk does when mixed with curd, a curdling medium, etc. And It is chnageless owing to partlessness, for it is not seen that any non-composite thing is changeful. Not being subject to transformation, It is said to be changeless. Tasmat, therefore; vidivata, having known; enam, this one, the Self; evam, thus, as described; na arhasi, you ought not; anusocitum, to grieve, thinking, 'I am the slayer of these; these are killed by me.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तथा -- यह आत्मा बुद्धि आदि सब करणोंका विषय नहीं होनेके कारण व्यक्त नहीं होता ( जाना नहीं जा सकता ) इसलिये अव्यक्त है। इसीलिये यह अचिन्त्य है, क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तनका विषय होता है। यह आत्मा इन्द्रियगोचर न होनेसे अचिन्त्य है। यह आत्मा अविकारी है अर्थात् जैसे दहीके जावन आदिसे दूध विकारी हो जाता है वैसे यह नहीं होता। तथा अवयवरहित ( निराकार ) होनेके कारण भी आत्मा अविक्रिय है, क्योंकि कोई भी अवयवरहित ( निराकार ) पदार्थ, विकारवान् नहीं देखा गया। अतः विकाररहित होनेके कारण यह आत्मा अविकारी कहा जाता है। सुतरां इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे समझकर तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये कि 'मैं इनका मारनेवाला हूँ' 'मुझसे ये मारे जाते हैं' इत्यादि ।।2.25।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
छेदनादियोग्यानि वस्तूनि यैः प्रमाणैः व्यज्यन्ते तैः अयम् आत्मा न व्यज्यते इति अव्यक्तः। अतः छेद्यादिविजातीयः। अचिन्त्यः च सर्ववस्तुविजातीयत्वेन तत्तत्स्वभावयुक्ततया चिन्तयितुम् अपि न अर्हः। अतः च अविकार्यः विकारानर्हः। तस्माद् उक्तलक्षणम् एनम् आत्मानं विदित्वा तत्कृते न अनुशोचितुम् अर्हसि ।।2.25।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.25 The self is not made manifest by those Pramanas (means of knowledge) by which objects susceptible of being cleft etc., are made manifest; hence It is unmanifest, being different in kind from objects susceptible to cleaving etc., It is inconceivable, being different in kind from all objects. As It does not possess the essential nature of any of them. It cannot even be conceived. Therefore, It is unchanging, incapable of modifications. So knowing this self to be possessed of the above mentioned qualities, it does not become you to feel grief for Its sake.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अव्यक्तोऽयमिति। अक्षरोऽयं वस्तुतोऽचिन्त्यश्च।'प्रकृतिभ्यः परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम्' इति वाक्यात्। नन्वेवम्भूतमव्यक्तं प्रधानं प्रसिद्धं तदेव किं निरूप्यत इति चेत्तत्राह -- अविकाऽर्योऽयमिति। प्रधानस्य विकार्यत्वादित्यर्थः। तस्मादेवम्भूतमेनमात्मानं ज्ञात्वा त्वं नानुशोचितमुर्हसि ।।2.25।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
छेद्यत्वादिग्राहकप्रमाणाभावादपि तदभाव इत्याह -- 'अव्यक्तोऽयमित्याद्यर्धेन'। यो हीन्द्रियगोचरो भवति स प्रत्यक्षत्वाद्व्यक्त इत्युच्यते। अयं तु रूपादिहीनत्वान्न तथा। अतो न प्रत्यक्षं तत्र छेद्यत्वादिग्राहकमित्यर्थः। प्रत्यक्षाभावेऽप्यनुमानं स्यादित्यत आह -- अचिन्त्योऽयं चिन्त्योऽनुमेयस्तद्विलक्षणोऽयम्, क्वचित्प्रत्यक्षो हि वह्न्यादिर्गृहीतव्याप्तिकस्य धूमादेर्दर्शनात्क्वचिदनुमेयो भवति, अप्रत्यक्षे तु व्याप्तिग्रहणासंभवान्नानुमेयत्वमिति भावः। अप्रत्यक्षस्यापीन्द्रियादेः सामान्यतो दृष्टानुमानविषयत्वं दृष्टमत आह -- अविकार्योऽयं यद्विक्रियावच्चक्षुरादिकं तत्स्वकार्यान्यथानुपपत्त्या कल्प्यमानमर्थापत्तेः सामान्यतो दृष्टानुमानस्य च विषयो भवति। अयं तु न विकार्यो न विक्रियावानतो नार्थापत्तेः सामान्यतो दृष्टस्य वा विषय इत्यर्थः। लौकिकशब्दस्यापि प्रत्यक्षादिपूर्वकत्वात्तन्निषेधेनैव निषेधः। ननु वेदेनैव तत्र छेद्यत्वादि ग्रहीष्यत इत्यत आह -- उच्यते वेदेन सोपकरणेनाच्छेद्याव्यक्तादिरूप एवायमुच्यते तात्पर्येण प्रतिपाद्यते, अतो न वेदस्य तत्प्रतिपादकस्यापि छेद्यत्वादिप्रतिपादकत्वमित्यर्थः। अत्र'नैनं छिन्दन्ति' इत्यत्र शस्त्रादीनां तन्नाशकसामर्थ्याभाव उक्त़ः।'अच्छेद्योऽयम्' इत्यादौ तस्य छेदादिकर्मत्वायोग्यत्वमुक्तम्। अव्यक्तोऽयम्' इत्यत्र तच्छेदादिग्राहकमानाभाव उक्त इत्यपौनरुक्त्यं द्रष्टव्यम्। 'वेदाविनाशिनम्' इत्यादिनां तु श्लोकानामर्थतः शब्दतश्च पौनरुक्त्यं भाष्यकृद्भिः परिहृतम्। दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान्वासुदेवः। कथं नु नाम संसारिणां बुद्धिगोचरमापन्नं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यादिति वदद्भिः। एंव पूर्वोक्तयुक्तिभिरात्मनो नित्यत्वे निर्विकारत्वे च सिद्धे तव शोको नोपपन्न इत्युपसंहरति -- 'तस्मादित्यर्धेन'। एतादृशात्मस्वरूपवेदनस्य शोककारणनिवर्तकत्वात्तस्मिन्सति शोको नोचितः। कारणाभावे कार्याभावस्यावश्यकत्वात्। तेनात्मानमविदित्वा यदन्वशोचस्तद्युक्तमेव। आत्मानं विदित्वा तु नानुशोचितुमर्हसीत्यभिप्रायः ।।2.25।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
अत एवाव्यक्तादिरूपः ।।2.25।।

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