गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-28


मूल स्लोकः

अर्जुन उवाच

कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।




English translation by Swami Sivananda
1.28. Arjuna said -- Seeing these, my kinsmen, O krishna, arrayed, eager to fight.


English commentary by Swami Sivananda
1.28 दृष्ट्वा having seen, इमम् these, स्वजनम् kinsmen, कृष्ण O Krishna (the dark one, He who attracts), युयुत्सुम् eager to fight, समुपस्थितम् arrayed.No Commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्धकी इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ ।।1.28 - 1.30।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् -- अर्जुनको कृष्ण नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका पार्थ नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें कृष्ण और पार्थ नामका उल्लेख किया है -- यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः (18। 78)।धृतराष्ट्रने पहले समवेता युयुत्सवः कहा था और यहाँ अर्जुनने भी युयुत्सुं समुपस्थितम् कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं -- ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ मामकाः और पाण्डवाः कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ स्वजनम् कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी।अबतक दृष्ट्वा पद तीन बार आया है -- दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् (1। 2), व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् (1। 20) और यहाँ दृष्ट्वेमं स्वजनम् (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।सीदन्ति मम गात्राणि ... भ्रमतीव च मे मनः -- अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें -- सारे शरीरमें जलन हो रही है (टिप्पणी प0 22.1)। मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये -- यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं ।।1.28।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.28 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.28 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.28।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- संजय उवाच -- स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत् ।।1.28।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.26 - 1.47 Arjuna said --- Sanjaya said -- Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.'He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
'सीदन्ति' इत्युपक्रम्य'भ्रमतीव च मे मनः' इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन, विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयति'निमित्तानि' इत्यादिना ।।1.28 -- 1.30।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तदेव भगवन्तं प्रत्यर्जुनवाक्यमवतारयति संजयः-अर्जुन उवाचेत्यादिना'एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये' इत्यतः प्राक्तनेन ग्रन्थेन। तत्र स्वधर्मप्रवृक्तिकारणीभूततत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकः स्वपरदेहे आत्मात्मीयाभिभानवतोऽनात्मविदोऽर्जुनस्य युद्धेन स्वपरदेहविनाशप्रसङ्गदर्शिनः शोको महानासीदति तल्लिङ्गकथनेन दर्शयति त्रिभिः श्लोकैः। इमं स्वजनमात्मीयं बन्धुवर्गं युद्धेच्छुं युद्धभूमौ चोपस्थितं दृष्ट्वा स्थितस्य मम। पश्यतो ममेत्यर्थः। अङ्गानि व्यथन्ते मुखं च परिशुष्यतीति श्रमादिनिमित्तशोकापेक्षयातिशयकथनाय सर्वतोभाववाचिपरिशब्दप्रयोगः ।।1.28।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.28।।

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