शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-38


मूल स्लोकः

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।




English translation by Swami Sivananda
2.38 Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin.


English commentary by Swami Sivananda
2.38 सुखदुःखे pleasure and pain, समे same, कृत्वा having made, लाभालाभौ gain and loss, जयाजयौ victory and defeat, ततः then, युद्धाय for battle, युज्यस्व engage thou, न not, एवम् thus, पापम् sin, अवाप्स्यसि shalt incur.Commentary: This is the Yoga of equanimity or the doctrine of poise in action. If anyone does any action with the above mental attitude or balanced state of mind he will not reap the fruits of his action. Such an action will lead to the purification of his heart and freedom from birth and death. One has to develop such a balanced state of mind through continous struggle and vigilant efforts.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।।2.38।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको पाप लग जायगा, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामनाका त्याग करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा।सुखदुःखे समे ... ततो युद्धाय युज्यस्व -- युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है, जय-पराजयका परिणाम होता है -- लाभ और हानि तथा लाभ-हानिका परिणाम होता है -- सुख और दुःख। जय-पराजयमें और लाभ-हानिमें सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना है।युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही। अतः तू पहलेसे यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है, जय-पराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा।सकाम और निष्काम -- दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य, प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये, प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता हौ तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है, कौन बुरा? अर्थात् दोनोंही समान हैं; बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके भयसे निवृत्ति न हो। कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार हो ही (गीता 16। 24)।नैवं पापमवाप्स्यसि -- यहाँ ' पाप' शब्द पाप और पुण्य -- दोनोंका वाचक है, जिसका फल है -- स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन, जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वञ्चित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म करनेसे तुझे पाप और पुण्य -- दोनों ही नहीं बाँधेंगे।प्रकरण सम्बन्धी विशेष बातभगवान्ने इकतीसवें श्लोकसे अड़तीसवें श्लोकतकके आठ श्लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं; जैसे -- (1) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्लोकोंमें उसकी कला बताते हैं। जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करना -- ऐसे विधि-निषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका, बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान्ने भी यहाँ पहले इकतीसवें-बत्तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन किया, फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी।(2) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्टिसे जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान्ने इन आठ श्लोकोंमें समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैं -- मैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (1। 31), तो भगवान् कहते हैं -- क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (2। 31)। अर्जुन कहते हैं -- युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे? (1। 37), तो भगवान् कहते हैं -- जिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है, वे ही क्षत्रिय सुखी है (2। 32)। अर्जुन कहते हैं -- युद्धके परिणाममें नरककी प्राप्ति होगी (1। 44), तो भगवान् कहते हैं -- युद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होगी (2। 32, 37)। अर्जुन कहते हैं -- युद्ध करनेसे पाप लगेगा (1। 36), तो भगवान् कहते हैं -- युद्ध न करनेसे पाप लगेगा (2। 33)। अर्जुन कहते हैं -- युद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (1। 40), तो भगवान् कहते हैं -- युद्ध न करनसे धर्मका नाश होगा (2। 33)।(3) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (2। 5), तो उनको भगवान्ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (2। 38); और उद्धवजीके मनमें भगवान्के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान्ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा0 11। 29। 41)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता।(4) भगवान्ने इस अध्यायके दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें जो बातें संक्षेपसे कही थीं, उन्हींको यहाँ विस्तारसे कहा है, जैसे -- वहाँ अनार्यजुष्टम् कहा तो यहाँ धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् कहा। वहाँ अस्वर्ग्यम् कहा तो यहाँ स्वर्गद्वारमपावृतम् कहा। वहाँ अकीर्तिकरम् कहा, तो यहाँ अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् कहा। वहाँ युद्धके लिये आज्ञा दी -- त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप तो वही आज्ञा यहाँ देते हैं -- ततो युद्धाय युज्यस्व।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जिस समताकी बात कही है, आगेके दो श्लोकोंमें उसीको सुननेके लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमाका वर्णन करते हैं ।।2.38।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- सुखदुःखे समे तुल्ये कृत्वा, रागद्वेषावप्यकृत्वेत्येतत्। तथा लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व घटस्व। न एवं युद्धं कुर्वन् पापम् अवाप्स्यसि। इत्येष उपदेशः प्रासङ्गिकः।।शोकमोहापनयनाय लौकिको न्यायः 'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' इत्याद्यैः श्लोकैरुक्तः, न तु तात्पर्येण। परमार्थदर्शनमिह प्रकृतम्। तच्चोक्तमुपसंह्रियते -- 'एषा तेऽभिहिता' (गीता 2.39) इति शास्त्रविषयविभागप्रदर्शनाय। इह हि प्रदर्शिते पुनः शास्त्रविषयविभागे उपरिष्टात् 'ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' इति निष्ठाद्वयविषयं शास्त्रं सुखं प्रवर्तिष्यते, श्रोतारश्च विषयविभागेन सुखं ग्रहीष्यन्ति इत्यत आह -- ।।2.38।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.38 As regards that, listen to this advice for you then you are engaged in battle considering it to be your duty: Krtva, treating; sukha-duhkhe, happiness and sorrow; same, with equanimity, i.e. without having likes and dislikes; so also treating labha-alabhau, gain and loss; jaya-ajayau, conquest and defeat, as the same; tatah, then; yuddhaya yujyasva, engage in battle. Evam, thus by undertaking the fight; na avapsyasi, you will not incur; papam, sin. This advice is incidental. The context here is that of the philosophy of the supreme Reality. If fighting is enjoined in that context, it will amount to accepting combination of Knowledge and actions. To avoid this contingency the Commentator says, 'incidental'. That is to say, although the context is of the supreme Reality, the advice to fight is incidental. It is not an injunction to combine Knowledge with actions, since fighting is here the natural duty of Arjuna as a Ksatriya..The generally accepted argument for the removal of sorrow and delusion has been stated in the verses beginning with, 'Even considering your own duty' (31), etc., but this has not been presented by accepting that as the real intention (of the Lord).The real context here (in 2.12 etc.), however, is of the realization of the supreme Reality. Now, in order to show the distinction between the (two) topics dealt with in this scripture, the Lord concludes that topic which has been presented above (in 2.20 etc.), by saying, 'This (wisdom) has been imparted,' etc. For, if the distinction between the topics of the scripute be shown here, then the instruction relating to the two kinds of adherences -- as stated later on in, 'through the Yoga of Knowledge for the men of realization; through the Yoga of Action for the yogis' (3.3) -- will proceed again smoothly, and the hearer also will easily comprehend it by keeping in view the distinction between the topics. Hence the Lord says:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
'युद्ध स्वधर्म है' यह मानकर युद्ध करनेवालेके लिये यह उपदेश है, सुन -- सुख-दुःखको समान -- तुल्य समझकर अर्थात् ( उनमें ) राग-द्वेष न करके तथा लाभ-हानिको और जय-पराजयको समान समझकर, उसके बाद तू युद्धके लिये चेष्टा कर, इस तरह युद्ध करता हुआ तू पापको प्राप्त नहीं होगा। यह प्रासङ्गिक उपदेश है। 'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' इत्यादि श्लोकोंद्वारा शोक और मोहको दूर करनेके लिये लौकिक न्याय बतलाया गया है, परंतु पारमार्थिक दृष्टिसे यह बात नहीं है। यहाँ प्रकरण परमार्थ-दर्शनका है, जो कि पहले ( श्लोक 30 ) तक कहा गया है। अब शास्त्रके विषयका विभाग दिखलानेके लिये 'एषा तेऽभिहिता' इस श्लोकद्वारा उस ( परमार्थ-दर्शन ) का उपसंहार करते हैं ।।2.38।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एवं देहातिरिक्तम् अस्पृष्टसमस्तदेहस्वभावं नित्यम् आत्मानं ज्ञात्वा युद्धे च अवर्जनीयशस्त्रपातादिनिमित्तसुखदुःखार्थलाभालाभजयपराजयेषु अविकृतबुद्धिःस्वर्गादिफलाभिसन्धिरहितः केवलकार्यबुद्ध्या युद्धम् आरभस्व। एवं कुर्वाणो न पापम् अवाप्स्यसि पापं दुःखरूपं संसारं न अवाप्स्यसि। संसारबन्धात् मोक्ष्यसे इत्यर्थः।एवम् आत्मयाथात्म्यज्ञानम् उपदिश्य तत्पूर्वकं मोक्षसाधनभूतं कर्मयोगं वक्तुम् आरभते -- ।।2.38।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.38 Thus, knowing the self to be eternal, different from the body and untouched by all corporeal qualities, remaining unaffected by pleasure and pain resulting from the weapon-strokes etc., inevitable in a war, as also by gain and loss of wealth, victory and defeat, and keeping yourself free from attachment to heaven and such other frutis, begin the battle considering it merely as your own duty. Thus, you will incur no sin. Here sin means transmigratory existence which is misery. The purport is that you will be liberarted from the bondage of transmigratory existence.Thus, after teaching the knowledge of the real nature of the self, Sri Krsna begins to expound the Yoga of work, which, when preceded by it (i.e., knowledge of the self), constitutes the means for liberation.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यच्चोक्तं'पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वा' 1।36 इत्यादिना तत्रावधेहि -- सुखदुःखे समे कृत्वेति। योगमपि संस्मरन्नाह -- साङ्ख्यनैकीकृत्य। जगति फलभूते सुखदुःखे समे हेयोपादेयतया तुल्ये कृत्वा, तत्साधनक्रियाभूतौ लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा, युद्धाय युज्यस्व। एवं कृतेऽनुद्देशतस्त्वं पापं न प्राप्स्यसि ।।2.38।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वेवं स्वर्गमुद्दिश्य युद्धकरणे तस्य नित्यत्वव्याघातः, राज्यमुद्दिश्य युद्धकरणे त्वर्थशास्त्रत्वाद्धर्मशास्त्रापेक्षया दौर्बल्यं स्यात्, ततश्च काम्यस्याकरणे कुतः पापं, दृष्टार्थस्य गुरुब्राह्मणादिवधस्य कुतो धर्मत्वं, तथाच'अथ चेत्' इति श्लोकार्थो व्याहत इति चेत्तत्राह -- समताकरणं रागद्वेषराहित्यं सुखे तत्कारणे लाभे तत्कारणे जये च रागमकृत्वा, एवं दुःखे तद्धेतावलाभे तद्धेतावपजये च द्वेषमकृत्वा, ततो युद्धाय युज्यस्व संनद्धो भव। एवं सुखकामनां दुःखनिवृत्तिकामनां वा विहाय स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानो गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं नित्याकर्माकरणनिमित्तं च पापं न प्राप्स्यसि। यस्तु फलकामनया करोति स गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं पापं प्राप्नोति। यो वा न करोति स नित्यकर्माकरणनिमित्तम्। अतः फलकामनामन्तरेण कुर्वन्नुभयविधमपि पापं न प्राप्नोतीति प्रागेव व्याख्यातोऽभिप्रायः।'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्' इति त्वानुषङ्गिफलकथनमिति न दोषः। तथाचापस्तम्बः स्मरति'तद्याथाम्रे फलार्थं निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मंचर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नो चेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति' इति। अतो युद्धशास्त्रस्यार्थशास्त्रत्वाभावात्'पापमेवाश्रयेदस्मान्' इत्यादि निराकृतं भवति ।।2.38।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.38।।

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