मूल स्लोकः
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
English translation by Swami Sivananda
2.45 The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes. O Arjuna, free yourself from the pairs of opposites, and ever remain in the quality of Sattva (goodness), freed from (the thought of) acquisition and preservation, and be established in the Self.
English commentary by Swami Sivananda
2.45 त्रैगुण्यविषयाः deal with the three attributes, वेदाः the Vedas, निस्त्रैगुण्यः without these three attributes, भव be, अर्जुन O Arjuna निर्द्वन्द्वः free from the pairs of opposites, नित्यसत्त्वस्थः ever remaining in the Sattva (goodness), निर्योगक्षेमः free from (the thought of) acquisition and preservation, आत्मवान् established in the Self.Commentary: Guna means attribute or quality. It is substance as well as quality. Nature (Prakriti) is made up of three Gunas, viz., Sattva (purity, light or harmony), Rajas (passion or motion) and Tamas (darkness or inertia). The pairs of opposites are heat and cold, pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat, honour and dishonour, praise and censure. He who is anxious about new acuqisitions or about the preservation of his old possessions cannot have peace of mind. He is ever restless. He cannot concentrate or meditate on the Self. He cannot practise virtue. Therefore, Lord Krishna advises Arjuna that he should be free from the thought of acquisition and preservation of things. (Cf.IX.20,21).
Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तुमें स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा ।।2.45।।
Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- त्रैगुण्यविषया वेदाः -- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोँके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है।यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है।निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन -- हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा।निर्द्वन्द्वः -- संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता 3।34) (टिप्पणी प0 81)। इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है, (गीता 7। 27)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता 7। 28)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीता 15। 5)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता 4। 22)। तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं।दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा , तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगा -- यह नियम है। ऐसा होनेपर भगवान्की उपेक्षा हो जायगी -- यह भी एक प्रकारका द्वेष है। परन्तु जब साधकका भगवान्में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी। उपरतिमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं, उदासीनतामें राग-द्वेषकी सत्ता रहती है, और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है।नित्यसत्त्वस्थः -- द्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह।निर्योगक्षेमः (टिप्पणी प0 82.1) -- तू योग और क्षेमकी (टिप्पणी प0 82.2) इच्छा भी मत रख, क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता 9। 22)।आत्मवान् -- तू केवल परमात्माके परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रख।सम्बन्ध -- तीनों गुणोंसे रहित, निर्द्वन्द्व आदि हो जानेसे क्या होगा -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.45।।
Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- त्रैगुण्यविषयाः त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रकाशयितव्यः येषां ते वेदाः त्रैगुण्यविषयाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन, निष्कामो भव इत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखहेतू सप्रतिपक्षौ पदार्थौ द्वन्द्वशब्दवाच्यौ, ततः निर्गतः निर्द्वन्द्वो भव। नित्यसत्त्वस्थः सदा सत्त्वगुणाश्रितो भव। तथा निर्योगक्षेमः अनुपात्तस्य उपादानं योगः, उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः, योगक्षेमप्रधानस्य श्रेयसि प्रवृत्तिर्दुष्करा इत्यतः निर्योगक्षेमो भव। आत्मवान् अप्रमत्तश्च भव। एष तव उपदेशः स्वधर्ममनुतिष्ठतः।।सर्वेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यान्युक्तान्यनन्तानि फलानि तानि नापेक्ष्यन्ते चेत्, किमर्थं तानि ईश्वरायेत्यनुष्ठीयन्ते इत्युच्यते; श्रृणु -- ।।2.45।।
English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.45 To those who are thus devoid of discriminating wisdom, who indulge in pleasure, Here Ast. adds 'yat phalam tad aha, what result accrues, that the Lord states:'-Tr. O Arjuna, vedah, the Vedas; traigunya-visayah, have the three qualities as their object, have the three gunas, Traigunya means the collection of the three qualities, viz sattva (purity), rajas (energy) and tamas (darkness); i.e. the collection of virtuous, vicious and mixed activities, as also their results. In this derivative sense traigunya means the worldly life. i.e. the worldly life, as the object to be revealed. But you bhava, become; nistraigunyah, free from the three qualities, i.e. be free from desires. There is a seeming conflict between the advices to be free from the three qualities and to be ever-poised in the quality of sattva. Hence, the Commentator takes the phrase nistraigunya to mean niskama, free from desires. (Be) nirdvandvah, free from the pairs of duality -- by the word dvandva, duality, are meant the conflicting pairs Of heat and cold, etc. which are the causes of happiness and sorrow; you become free from them. From heat, cold, etc. That is, forbear them.You become nitya-sattvasthah, ever-poised in the quality of sattva; (and) so also niryoga-ksemah, without (desire for) acquisition and protection. Yoga means acquisition of what one has not, and ksema means the protection of what one has. For one who as 'acquisition and protection' foremost in his mind, it is difficult to seek Liberation. Hence, you be free from acquisition and protection. And also be atmavan, self-collected, vigilant. This is the advice given to you while you are engaged in your own duty. And not from the point of view of seeking Liberation.
Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो इस प्रकार विवेक-बुद्धिसे रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषोंके -- वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन ! तू असंसारी हो -- निष्कामी हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है, योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याण-मार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् ( आत्म-विषयोंमें ) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुएके लिये यह उपदेश है ।।2.45।।
Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
त्रयो गुणाः त्रैगुण्यं सत्त्वरजस्तमांसि; सत्त्वरजस्तमःप्रचुराः पुरुषाः त्रैगुण्यशब्देन उच्यन्ते। तद्विषया वेदाः; तमःप्रचुराणां रजःप्रचुराणां सत्त्वप्रचुराणां च वत्सलतरतया एव हितम् अवबोधयन्ति वेदाः।यदि एषां स्वगुणानुगुण्येन स्वर्गादिसाधनम् एव हितं न अवबोधयन्ति, तदा एव ते रजस्तमःप्रचुरतया सात्त्विकफलमोक्षविमुखाः स्वापेक्षितफलसाधनम् अजानन्तः कामप्रावण्यविवशा अनुपायेषु उपायभ्रान्त्या प्रविष्टाः प्रणष्टा भवेयुः। अतः त्रैगुण्यविषया वेदाः; त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव, इदानीं सत्त्वप्रचुरः त्वं तदेव वर्धय; नान्योन्यसंकीर्णगुणत्रयप्रचुरो भव। न तत्प्राचुर्यं वर्धय इत्यर्थः निर्द्वन्द्वः निर्गतसकलसांसारिकस्वभावः। नित्यसत्त्वस्थः गुणद्वयरहितनित्यप्रवृद्धसत्त्वस्थो भव।कथम्? इति चेत्, निर्योगक्षेमः आत्मस्वरूपतत्प्राप्त्युपायबहिर्भूतानाम् अर्थानां योगं प्राप्तानां च क्षेमं परिपालनं परित्यज्य आत्मवान् भव, आत्मस्वरूपान्वेषणपरो भव। अप्राप्तस्य प्राप्तिः योगः, प्राप्तस्य परिरक्षणं क्षेमः। एवं वर्तमानस्य ते रजस्तमः प्रचुरता नश्यति सत्त्वं च वर्धते।न च वेदोदितं सर्वं सर्वस्य उपादेयम् -- ।।2.45।।
English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.45 The word Traigunya means the three Gunas --- Sattva, Rajas and Tamas. Here the term Traigunya denotes persons in whom Sattva, Rajas and Tamas are in abundance. The Vedas in prescribing desire-oriented rituals (Kamya-karmas) have such persons in view. Because of their great love, the Vedas teach what is good to those in whom Tamas, Rajas and Sattva preponderate. If the Vedas had not explained to these persons the means for the attainment of heaven etc., according to the Gunas, then those persons who are not interested in liberation owing to absence of Sattva and preponderance of Rajas and Tamas in them, would get completely lost amidst what should not be resorted to, without knowing the means for attaining the results they desire. Hence the Vedas are concerned with the Gunas. Be you free from the three Gunas. Try to acquire Sattva in abundance; increase that alone. The purport is: do not nurse the preponderance of the three Gunas in their state of inter-mixture; do not cultivate such preponderance.Be free from the pairs of opposites; be free from all the characteristics of worldly life. Abide in pure Sattva; be established in Sattva, in its state of purity without the admixture of the other two Gunas. If it is questioned how that is possible, the reply is as follows. Never care to acquire things nor protect what has been acquired. While abandoning the acquisition of what is not required for self-realisation, abandon also the conservation of such things already acquired. You can thus be established in self-control and thereby become an aspirant after the essentail nature of the self. 'Yoga' is acquisition of what has not been acquired; 'Ksema' is preservation of things already acquired. Abandoning these is a must for an aspirant after the essential nature of the self. If you conduct yourself in this way, the preponderance of Rajas and Tamas will be annihilated, and pure Sattva will develop.Besides, all that is taught in the Vedas is not fit to be utilised by all.
Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
स्वयमेव वेदतात्पर्यमाह भगवान् -- त्रैगुण्यविषया वेदा इति। यत एवं कामात्मनां त्रैगुण्याधिकारिणां त्रैगुण्यफलविषया वेदास्त्रिकाण्डविषया अपि अतस्त्वं वेदादिमूलानिस्त्रिगुणतत्त्वाश्रितो भव। त्रिगुणमाश्रितस्त्रैगुण्यस्तद्भिन्नो निस्त्रैगुण्यः। निस्त्रिगुणं मामाश्रितो भवेति गूढाभिप्रायः। तल्लिङ्गमाह -- निर्द्वन्द्व इत्यादि।'त्रिदुःखसहनं धैर्यं' इति नित्यं सत्वे धैर्ये स्थितः'सत्त्वैकमनसो वृत्तिः' इति वाक्यान्नित्यसत्त्वरूपभगवन्निष्ठो भवेति गूढाभिसन्धिः। स्वबलेन कृतमप्राप्तसम्पादनं योगः। प्राप्तपरिपालनं क्षेमः। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमौ तद्रहित इति योगानुरोधेनोक्तम्। वस्तुतस्तु सत्त्वैकमनसो भगवदीयस्य भक्तियोगानुसारेण भगवदधीनयोगक्षेमवत्त्वं सूच्यते निर्योगक्षेमशब्देन। एवमेवाग्रे वक्ष्यति। -- 'तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' 9।22 इति। आत्मना मनो विद्यते यस्य वश इति तथा ।।2.45।।
Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु सकामानां माभूदाशयदोषाद्व्यवसायात्मिका बुद्धिः, निष्कामानां तु व्यवसायात्मकबुद्ध्या कर्म कुर्वतां कर्मस्वाभाव्यात्स्वर्गादिफलप्राप्तौ ज्ञानप्रतिबन्धः समान इत्याशङ्क्याह -- त्रयाणां गुणानां कर्म त्रैगुण्यं काममूलः संसारः स एव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशा वेदाः कर्मकाण्डात्मकाः, यो यत्फलकामस्तस्यैव तत्फलं बोधयन्तीत्यर्थः। नहि सर्वेभ्यः कोमेभ्यो दर्शपूर्णमासाविति विनियोगेऽपि सकृदनुष्ठानात्सर्वफलप्राप्तिर्भवति तत्तत्कामनाविरहात्, यत्फलकामनयानुतिष्ठिति तदेव फलं तस्मिन्प्रयोग इति स्थितं योगसिद्ध्यधिकरणे। यस्मादेवं कामनाविरहे फलविरहः तस्मात्त्वं निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव हे अर्जुन। एतेन कर्मस्वाभाव्यात्संसारो निरस्तः। ननु शीतोष्णादिद्वन्द्वप्रतीकाराय वस्त्राद्यपेक्षणात्कुतो निष्कामत्वमत आह -- निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र भवेति संबध्यते। मात्रास्पर्शास्त्वित्युक्तन्यायेन शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुर्भव। असह्यं दुःखं कथं वा सोढव्यमित्यपेक्षायामाह -- नित्यसत्त्वस्थः नित्यमचञ्चलं यत्सत्त्वं धैर्यापरर्यायं तस्मिंस्तिष्ठतीति तथा। रजस्तमोभ्यामभिभूतसत्त्वो हि शोतोष्णादिपीडया मरिष्यामीति मन्वानो धर्माद्विमुखो भवति, त्वं तु, रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वमात्रालम्बनो भव। ननु शीतोष्णादिसहनेऽपि क्षुत्पिपासादिप्रतीकारार्थं किंचिदनुपात्तमुपादेयमुपात्तं च रक्षणीयमिति तदर्थं यत्ने क्रियमाणे कुतः सत्त्वस्थत्वमित्यत आह -- निर्योगक्षेमः। अलब्धलाभो योगः, लब्धपरिरक्षणं क्षेमस्तद्रहितो भव। चित्तविक्षेपकारिपरिग्रहरहितो भवेत्यर्थः। नचैवं चिन्ता कर्तव्या कथमेवं सति जीविष्यामिति। यतः सर्वान्तर्यामी परमेश्वर एव तव योगक्षेमादि निर्वाहयिष्यतीत्याह -- आत्मवान् आत्मा परमात्मा ध्येयत्वेन योगक्षेमादिनिर्वाहकत्वेन च वर्तते यस्य स आत्मवान्। सर्वकामनापरित्यागेन परमेश्वरमाराधयतो मम सएव देहयात्रामात्रमपेक्षितं संपादयिष्यतीति निश्चित्य निश्चिन्तो भवेत्यर्थः। आत्मवानप्रमत्तो भवेति वा ।।2.45।।
Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तां योगबुद्धिमाह -- 'त्रैगुण्यविषया' इत्यादिना। इतरदपोद्य वेदानां परोक्षार्थत्वात्ित्रगुणसम्बन्धिस्वर्गादिप्रतीतितोऽर्थ इव भाति।'परोक्षवादो वेदोऽयं' इति ह्युक्तम्। अतः प्रातीतिकेऽर्थे भ्रान्तिं मा कुर्वित्यर्थः।'वादो विषयकत्वं च मुखतोवचनं स्मृतम्' इत्यभिधानात्। न तु वेदपक्षो निषिध्यते।'वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते।' "सर्वे वेदा यत्पदम्" कठो.2।15'वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनो रुचि-(नस्तुष्टि-) रेव च' मनुः2।16'वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।' भाग.6।1।40 इति वेदानां सर्वात्मना विष्णुपरत्वोक्तेस्तद्विहितस्य तद्विरुद्धस्य च धर्माधर्मोक्तेश्च ।।2.45।।
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