शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-02


मूल स्लोकः

श्री भगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।




English translation by Swami Sivananda
2.2 The Blessed Lord said -- Whence is this perilous strait come upon thee, this dejection which is unworthy of you, disgraceful, and which will close the gates of heaven upon you, O Arjuna?


English commentary by Swami Sivananda
2.2 कुतः whence, त्वा upon thee, कश्मलम् dejection, इदम् this, विषमे in perilous strait, समुपस्थितम् comes, अनार्यजुष्टम् unworthy (un-aryanlike), अस्वर्ग्यम् heaven-excluding, अकीर्तिकरम् disgraceful, अर्जुन O Arjuna.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है ।।2.2।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अर्जुन -- यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्तःकरणवाले हो। अतः तुम्हारे स्वभावमें कालुष्य -- कायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी?कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् -- भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी !आश्चर्य दो तरहसे होता है -- अपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिए। भगवान्का यहाँ जो आश्चर्यपूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुनको चेतानेके लिये ही है, जिससे अर्जुनका ध्यान अपने कर्तव्यपर चला जाय।कुतः कहनेका तात्पर्य यह है कि मूलमें यह कायरतारूपी दोष तुम्हारेमें (स्वयंमें) नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहनेवाला नहीं है।समुपस्थितम् कहनेका तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावोंमें और वचनोंमें ही नहीं आयी है; किन्तु तुम्हारी क्रियाओंमें भी आ गयी है। यह तुम्हारेपर अच्छी तरहसे छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथके मध्यभागमें बैठ गये हो।अनार्यजुष्टम् (टिप्पणी प0 38.2) -- समझदार श्रेष्ठ मनुष्योंमें जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याणके उद्देश्यको लेकर ही होते हैं। इसलिये श्लोकके उत्तरार्धमें भगवान् सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारेमें जो कायरता आयी है, उस कायरताको श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरतामें अपने कल्याणकी बात बिलकुल नहीं है। कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमें अपने कल्याणका ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्यके प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थितिके अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है, उसको वे कल्याणप्राप्तिके उद्देश्यसे उत्साह और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग करते हैं। वे तुम्हारे-जैसे कायर होकर युद्धसे या अन्य किसी कर्तव्य-कर्मसे उपरत नहीं होते। अतः युद्धरूपसे प्राप्त कर्तव्य-कर्मसे उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है।अस्वर्ग्यम् -- कल्याणकी बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टिसे भी देखा जाय, तो संसारमें स्वर्गलोग ऊँचा है। परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्गको देनेवाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्धसे निवृत्त होनेका फल स्वर्गकी प्राप्ति भी नहीं हो सकता।अकीर्तिकरम् -- अगर स्वर्गप्राप्तिका भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जानेवाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसारमें कीर्ति हो। परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है, यह इस लोकमें भी कीर्ति (यश) देनेवाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति (अपयश) देनेवाली है। अतः तुम्हारेमें कायरताका आना सर्वथा ही अनुचित है।भगवान्ने यहाँ अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम् और अकीर्तिकरम् -- ऐसा क्रम देकर तीन प्रकारके मनुष्य बताये हैं -- (1) जो विचारशील मनुष्य होते हैं, वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय, उद्देश्य केवल कल्याणका ही होता है। (2) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ-कर्मोंके द्वारा स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्गको ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्तिका ही उद्देश्य रखते हैं। (3) जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसारको ही आदर देते हैं। इसलिये वे संसारमें अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्तिको ही अपना ध्येय मानते हैं।उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करनेका निश्चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्योंके ध्येय -- कल्याण और स्वर्गको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्योंके ध्येय -- कीर्तिको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है। अतः मोहके कारण तुम्हारा युद्ध न करनेका निश्चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करनेवाला, तुम्हें नरकोंमें ले जानेवाला और तुम्हारी अपकीर्ति करनेवाला होगा।सम्बन्ध -- कायरता आनेके बाद अब क्या करें? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं -- ।।2.2।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.2।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
संजय उवाच -- श्रीभगवानुवाच -- एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच ।।2.2।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.1 - 2.3 Sanjaya said --- Lord said -- When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: 'What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
मोहमधुहन्ता वाक्यं वक्ष्यमाणमुवाच -- कुतस्त्वेति। विषमे सङ्कटे हे अर्जुन शुद्धस्वरूप! कुत इदं च कश्मलं समुपस्थितम्? ।।2.2 -- 2.3।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तदेव भगवतो वाक्यमवतारयति -- 'श्रीभगवानुवाचेति'।'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीङ्गना।।' समग्रस्येति प्रत्येकं संबन्धः। मोक्षस्येति तत्साधनस्य ज्ञानस्य। इङ्गना संज्ञा। एतादृशं समग्रमैश्वर्यादिकं नित्यमप्रतिबन्धेन यत्र वर्तते स भगवान्। नित्ययोगे मतुप्। तथा -- 'उत्पत्तिं च विनाशं च भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।।' अत्र भूतानामिति प्रत्येकं संबध्यते। उत्पत्तिविनाशशब्दौ तत्कारणस्याप्युपलक्षकौ। आगतिगती आगामिन्यौ संपदापदौ। एतादृशो भगवच्छब्दार्थः श्रीवासुदेव एव पर्यवसित इति तथोच्यते -- इदं स्वधर्मात्पराङ्मुखत्वं कृपाव्यामोहाश्रुपातादिपुरःसरं कश्मलं शिष्टगर्हितत्वेन मलिनं विषमे सभये स्थाने त्वा त्वां सर्वक्षत्रियप्रवरं कुतो हेतोः समुपस्थितं प्राप्तं, किं मोक्षेच्छातः, किंवा स्वर्गेच्छातः, अथवा कीर्तीच्छात इति किंशब्देनाक्षिप्यते। हेतुत्रयमपि निषेधति त्रिभिर्विशेषणैरुत्तरार्धेन। आर्यैर्मुमुक्षुभिर्न जुष्टमसेवितम्।स्वधर्मैराशयशुद्धिद्वारा मोक्षमिच्छद्भिरपक्वकषायैर्मुमुक्षुभिः कथं स्वधर्मस्त्याज्य इत्यर्थः। संन्यासाधिकारी तु पक्वकषायोऽग्रे वक्ष्यते। अस्वर्ग्यं स्वर्गहेतुधर्मविरोधित्वान्न स्वर्गेच्छया सेव्यम्। अकीर्तिकरं कीर्त्यभावकरमपकीर्तिकरं वा न कीर्तीच्छया सेव्यम्। तथाच मोक्षकामैः स्वर्गकामैः कीर्तिकामैश्च वर्जनीयम्। तत्काम एव त्वं सेवस इत्यहो अनुचितचेष्टितं तवेति भावः ।।2.2।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.2।।

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