शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-16


मूल स्लोकः

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।




English translation by Swami Sivananda
2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence).


English commentary by Swami Sivananda
2.16 न not, असतः of the unreal, विद्यते is, भावः being, न not, अभावः non-being, विद्यते is, सतः of the real, उभयोः of the two, अपि also, दृष्टः (has been) seen, अन्तः the final truth, तु indeed, अनयोः of these, तत्त्वदर्शिभिः by the knowers of the Truth.Commentary -- The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
(टिप्पणी प0 55) असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।।2.16।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- नासतो विद्यते भावः -- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान -- इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है, यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटा-सानमूना है; इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है।संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभाव-ही-अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।नाभावो विद्यते सतः -- जो सत् वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का-त्यों ही है।मार्मिक बात संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती, जैसे -- सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1)। इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं -- अनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-रहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं! तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।दूसरी बात, संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि) की सहायताके बिना चेतन-स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है, स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।संसारका स्वरूप है -- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है, जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः -- इन दोनोंके अर्थात् सत्-असत्, देही-देहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्-तत्त्व ही विद्यमान है।असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक ' सत् ' ही है, दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् -- इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्-तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को परा प्रकृति (गीता 7। 5), क्षेत्रज्ञ (गीता 13। 1-2), पुरुष (गीता 13। 19) और अक्षर (गीता 15। 16) कहा गया है; तथा असत्को अपरा प्रकृति, क्षेत्र, प्रकृति और क्षर कहा गया है।अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे? असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्-रूपसे है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें धीर शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है, तो उसमें भी धीर शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्-असत्का विवेचन आया है, तो इसमें तत्त्वदर्शी (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकोंमें पण्डित, धीर और तत्त्वदर्शी पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं हैं, समझदार नहीं हैं।सम्बन्ध -- सत् और असत् क्या है -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं ।।2.16।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न असतः अविद्यमानस्य शीतोष्णादेः सकारणस्य न विद्यते नास्ति भावो भवनम् अस्तिता।।न हि शीतोष्णादि सकारणं प्रमाणैर्निरूप्यमाणं वस्तु सम्भवति। विकारो हि सः, विकारश्च व्यभिचरति। यथा घटादिसंस्थानं चक्षुषा निरूप्यमाणं मृद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरसत्, तथा सर्वो विकारः कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसन्। जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च अनुपलब्धेः कार्यस्य घटादेः मृदादिकारणस्य च तत्कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसत्त्वम्।।तदसत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इति चेत्, न; सर्वत्र बुद्धिद्वयोपलब्धेः, सद्बुद्धिरसद्बुद्धिरिति। यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति, तत् सत्; यद्विषया व्यभिचरति, तदसत्; इति सदसद्विभागे बुद्धितन्त्रे स्थिते, सर्वत्र द्वे बुद्धी सर्वैरुपलभ्येते समानाधिकरणे न नीलोत्पलवत्, सन् घटः, सन् पटः, सन् हस्ती इति। एवं सर्वत्र। तयोर्बुद्धयोः घटादिबुद्धिः व्यभिचरति। तथा च दर्शितम्। न तु सद्बुद्धिः। तस्मात् घटादिबुद्धिविषयः असन्, व्यभिचारात्; न तु सद्बुद्धिविषयः, अव्यभिचारात्।।घटे विनष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति चेत्, न; पटादावपि सद्बुद्धिदर्शनात्। विशेषणविषयैव सा सद्बुद्धिः।।सद्बुद्धिवत् घटबुद्धिरपि घटान्तरे दृश्यत इति चेत्, न; पटादौ अदर्शनात्।।सद्बुद्धिरपि नष्टे घटे न दृश्यत इति चेत्, न; विशेष्याभावात्। सद्बुद्धिः विशेषणविषया सती विशेष्याभावे विशेषणानुपपत्तौ किंविषया स्यात्? न तु पुनः सद्बुद्धेः विषयाभावात्।।एकाधिकरणत्वं घटादिविशेष्याभावे न युक्तमिति चेत्, न; 'इदमुदकम्' इति मरीच्यादौ अन्यतराभावेऽपि सामानाधिकरण्यदर्शनात्।।तस्माद्देहादेः द्वन्द्वस्य च सकारणस्य असतो न विद्यते भाव इति। तथा सतश्च आत्मनः अभावः अविद्यमानता न विद्यते, सर्वत्र अव्यभिचारात् इति अवोचाम।।एवम् आत्मानात्मनोः सदसतोः उभयोरपि दृष्टः उपलब्धः अन्तो निर्णयः सत् सदेव असत् असदेवेति, तु अनयोः यथोक्तयोः तत्त्वदर्शिभिः। तदिति सर्वनाम्, सर्वं च ब्रह्म, तस्य नाम तदिति, तद्भावः तत्त्वम्, ब्रह्मणो याथात्म्यम्। तत् द्रष्टुं शीलं येषां ते तत्त्वदर्शिनः, तैः तत्त्वदर्शिभिः। त्वमपि तत्त्वदर्शिनां दृष्टिमाश्रित्य शोकं मोहं च हित्वा शीतोष्णादीनि नियतानियतरूपाणि द्वन्द्वानि 'विकारोऽयमसन्नेव मरीचिजलवन्मिथ्यावभासते' इति मनसि निश्चित्य तितिक्षस्व इत्यभिप्रायः।।किं पुनस्तत् यत् सदेव सर्वदा इति; उच्यते -- ।।2.16।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.16 Since 'the unreal has no being,' etc., for this reason also it is proper to bear cold, heat, etc. without becoming sorrowful or deluded. Asatah, of the unreal, of cold, heat, etc. together with their causes; na vidyate, there is no; bhavah, being, existence, reality; because heat, cold, etc. together with their causes are not substantially real when tested by means of proof. For they are changeful, and whatever is changeful is inconstant. As configurations like pot etc. are unreal since they are not perceived to be different from earth when tested by the eyes, so also are all changeful things unreal because they are not perceived to be different from their (material) causes, and also because they are not perceived before (their) origination and after destruction.Objection: If it be that Here Ast. has the additional words 'karyasya ghatadeh, the effect, viz pot etc. (and)'.-Tr. such (material) causes as earth etc. as also their causes are unreal since they are not perceived differently from their causes, in that case, may it not be urged that owing to the nonexistence of those (causes) there will arise the contingency of everything becoming unreal An entity cannot be said to be unreal merely because it is non-different from its cause. Were it to be asserted as being unreal, then the cause also should be unreal, because there is no entity which is not subject to the law of cuase and effect.?Vedantin: No, for in all cases there is the experience of two awarenesses, viz the awareness of reality, and the awareness of unreality. In all cases of perception two awarenesses are involved: one is invariable, and the other is variable. Since the variable is imagined on the invariable, therefore it is proved that there is something which is the substratum of all imagination, and which is neither a cause nor an effect. That in relation to which the awareness does not change is real; that in relation to which it changes is unreal. Thus, since the distinction between the real and the unreal is dependent on awareness, therefore in all cases (of empirical experiences) everyone has two kinds of awarenesses with regard to the same substratum: (As for instance, the experiences) 'The pot is real', 'The cloth is real', 'The elephant is real' -- (which experiences) are not like (that of) 'A blue lotus'. In the empirical experience, 'A blue lotus', there are two awarenesses concerned with two entities, viz the substance (lotus) and the quality (blueness). In the case of the experience, 'The pot is real', etc. the awarenesses are not concerned with substratum and qualities, but the awareness of pot,of cloth, etc. are superimposed on the awareness of 'reality', like that of 'water' in a mirage. This is how it happens everywhere. The coexistence of 'reality' and 'pot' etc. are valid only empirically -- according to the non-dualists; whereas the coexistence of 'blueness' and 'lotus' is real according to the dualists.Of these two awareness, the awareness of pot etc. is inconstant; and thus has it been shown above. But the awareness of reality is not (inconstant). Therefore the object of the awareness of pot etc. is unreal because of inconstancy; but not so the object of the awareness of reality, because of its constancy.Objection: If it be argued that, since the awareness of pot also changes when the pot is destroyed, therefore the awareness of the pot's reality is also changeful?Vedantin: No, because in cloth etc. the awareness of reality is seen to persist. That awareness relates to the odjective (and not to the noun 'pot'). For this reason also it is not destroyed. This last sentence has been cited in the f.n. of A.A.-Tr.Objection: If it be argued that like the awareness of reality, the awareness of a pot also persists in other pots?Vedantin: No, because that (awareness of pot) is not present in (the awareness of) a cloth etc.Objection: May it not be that even the awareness of reality is not present in relation to a pot that has been destroyed?Vedantin: No, because the noun is absent (there). Since the awareness of reality corresponds to the adjective (i.e. it is used adjectivelly), therefore, when the noun is missing there is no possibility of its (that awareness) being an adjective. So, to what should it relate? But, again, the awareness of reality (does not cease) with the absence of an object.. Even when a pot is absent and the awareness of reality does not arise with regare to it, the awareness of reality persists in the region where the pot had existed. Some read nanu in place of na tu ('But, again'). In that case, the first portion (No,...since...adjective. So,...relate?) is a statement of the Vedantin, and the Objection starts from nanu punah sadbuddheh, etc. so, the next Objection will run thus: 'May it not be said that, when nouns like pot etc. are absent, the awareness of existence has no noun to qualify, and therefore it becomes impossible for it (the awareness of existence) to exist in the same substratum?'-Tr.Objection: May it not be said that, when nouns like pot etc. are absent, (the awareness of existence has no noun to qualify and therefore) it becomes impossible for it to exist in the same substratum? The relationship of an adjective and a noun is seen between two real entities. Therefore, if the relationship between 'pot' and 'reality' be the same as between a noun and an adjective, then both of them will be real entities. So, the coexistence of reality with a non-pot does not stand to reason.Vedantin: No, because in such experiences as, 'This water exists', (which arises on seeing a mirage etc.) it is observed that there is a coexistence of two objects though one of them is non-existent.Therefore, asatah, of the unreal, viz body etc. and the dualities (heat, cold, etc.), together with their causes; na vidyate, there is no; bhavah, being. And similarly, satah, of the real, of the Self; na vidyate, there is no; abhavah, nonexistence, because It is constant everywhere. This is what we have said.Tu, but; antah, the nature, the conclusion (regarding the nature of the real and the unreal) that the Real is verily real, and the unreal is verily unreal; ubhayoh api, of both these indeed, of the Self and the non-Self, of the Real and the unreal, as explained above; drstah, has been realized thus; tattva-darsibhih, by the seers of Truth. Tat is a pronoun (Sarvanama, lit. name of all) which can be used with regard to all. And all is Brahman. And Its name is tat. The abstraction of tat is tattva, the true nature of Brahman. Those who are apt to realize this are tattva-darsinah, seers of Truth.Therefore, you too, by adopting the vision of the men of realization and giving up sorrow and delusion, forbear the dualities, heat, cold, etc. -- some of which are definite in their nature, and others inconstant --, mentally being convinced that this (phenomenal world) is changeful, verily unreal and appears falsely like water in a mirage. This is the idea.What, again, is that reality which remains verily as the Real and surely for ever? This is being answered in, 'But know That', etc.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
इसलिये भी शोक और मोह न करके शीतोष्णादिको सहन करना उचित है, जिससे कि -- वास्तवमें अविद्यमान शीतोष्णादिका और उनके कारणोंका भाव-होनापन अर्थात् अस्तित्व है ही नहीं, क्योंकि प्रमाणोंद्वारा निरूपण किये जानेपर शीतोष्णादि और उनके कारण कोई पदार्थ ही नहीं ठहरते ! क्योंकि वे शीतोष्णादि सब विकार हैं, और विकार सदा बदलता रहता है। जैसे चक्षुद्वारा निरूपण किया जानेपर घटादिका आकार मिट्टीको छोड़कर और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता इसलिये असत् है, वैसे ही सभी विकार कारणके सिवा उपलब्ध न होनेसे असत् हैं। क्योंकि उत्पत्तिसे पूर्व और नाशके पश्चात् उन सबकी उपलब्धि नहीं है। पू0 -- मिट्टी आदि कारणकी और उसके भी कारणकी अपने कारणसे पृथक् उपलब्धि नहीं होनेसे उनका अभाव सिद्ध हुआ, फिर इसी तरह उसका भी अभाव सिद्ध होनेसे सबके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि सर्वत्र सत्-बुद्धि और असत्-बुद्धि ऐसी दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। जिस पदार्थको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती नहीं वह पदार्थ सत् है और जिसको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती हो वह असत् है। इस प्रकार सत् और असत्का विभाग बुद्धिके अधीन है। सभी जगह समानाधिकरणमें ( एक ही अधिष्ठानमें ) सबको दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। नील कमलके सदृश नहीं, किन्तु घड़ा है, कपड़ा है, हाथी है, इस तरह सब जगह दो-दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। उन दोनों बुद्धियोंसे घटादिको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती है, यह पहले दिखलाया जा चुका है परंतु सत्-बुद्धि बदलती नहीं। अतः घटादि बुद्धिका विषय ( घटादि ) असत् है क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) होता है। परंतु सत्-बुद्धिका विषय ( अस्तित्व ) असत् नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) नहीं होता। पू0 -- घटका नाश हो जानेपर घटविषयक बुद्धिके नष्ट होते ही सत् बुद्धि भी तो नष्ट हो जाती है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि वस्त्रादि अन्य वस्तुओंमें भी सत्-बुद्धि देखी जाती है। वह सत्-बुद्धि केवल विशेषणको ही विषय करनेवाली है। पू0 -- सत्-बुद्धिकी तरह घट-बुद्धि भी तो दूसरे घटमें दीखती है। उ0 -- यह ठीक नहीं; क्योंकि वस्त्रादिमें नहीं दीखती। पू0 -- घटका नाश हो जानेपर उसमें सत्-बुद्धि भी तो नही दीखती। उ0 -- यह ठीक नहीं; क्योंकि ( वहाँ ) घटरूप विशेष्यका अभाव है। सत्-बुद्धि विशेषणको विषय करनेवाली है अतः जब घटरूप विशेष्यका अभाव हो गया तब बिना विशेष्यके विशेषणकी अनुपपत्ति होनसे वह ( सत्-बुद्धि ) किसको विषय करे? पर विषयका अभाव होनेसे सत्-बुद्धिका अभाव नहीं होता। पू0 -- घटादि विशेष्यका अभाव होनेसे एकाधिकरणता ( दोनों बुद्धियोंका एक अधिष्ठानमें होना ) युक्तियुक्त नहीं होती। उ0 -- यह ठीक नहीं, क्योंकि मृगतृष्णिकादिमें अधिष्ठानसे अतिरिक्त अन्य वस्तुका ( जलका ) अभाव है तो भी 'यह जल है' ऐसी बुद्धि होनेसे समानाधिकरणता देखी जाती है। इसलिये असत् जो शरीरादि एवं शीतोष्णादि द्वन्द्व और उनके कारण हैं उनका किसीका भी भाव -- अस्तित्व नहीं है। वैसे ही सत् जो आत्मतत्व है उसका अभाव अर्थात् अविद्यमानता नहीं है; क्योंकि वह सर्वत्र अटल है यह पहले कह आये हैं। इस प्रकार सत्-आत्मा और असत्-अनात्मा इन दोनोंका ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियोंद्वारा देखा गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। 'तत्' यह सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म ही है। अतः उसका नाम 'तत्' है , उसके भावको अर्थात् ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपको तत्त्व कहते हैं, उस तत्त्वको देखना जिनका स्वभाव है वै तत्त्वदर्शी हैं, उनके द्वारा उपर्युक्त निर्णय देखा गया है। तू भी तत्त्वदर्शी पुरुषोंकी बुद्धिका आश्रय लेकर शोक और मोहको छोड़कर तथा नियत और अनियतरूप शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको, इस प्रकार मनमें समझकर कि ये सब विकार है, ये वास्तवमें न होते हुए ही मृगतृष्णाके जलकी भाँति मिथ्या प्रतीत हो रहे हैं, ( इनको ) सहन कर। यह अभिप्राय है ।।2.16।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
असतो देहस्य सद्भावो न विद्यते सतः च आत्मनो न असद्भावः। उभयोः देहात्मनोः उपलभ्यमानयोः यथोपलब्धि तत्त्वदर्शिभिः अन्तो दृष्टः।निर्णयान्तत्वात् निरूपणस्य निर्णय इह अन्तशब्देन उच्यते। देहस्य अचिद्वस्तुनोः असत्त्वम् एव स्वरूपम्, आत्मनः चेतनस्य सत्त्वम् एव स्वरूपम्; इति निर्णयो दृष्टः इत्यर्थः।विनाशस्वभावो हि असत्त्वम्, अविनाशस्वभावश्च सत्त्वम्। यथा उक्तं भगवता पराशरेण'तस्मान्न विज्ञानमृतेऽस्ति किञ्चित् क्वचित्कदाचिद्द्विज वस्तुजातम्।' (वि0 पु0 2।12।43)'सद्भाव एवं भवतो मयोक्तो ज्ञानं यथा सत्यमसत्यमन्यत्' (वि0 पु0 2।12।45)'अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते। तत्तु नाशि न संदेहो नाशिद्रव्योपपादितम्।।' (वि0 पु0 2।14।24)'यत्तु कालान्तरेणापि नान्यां संज्ञामुपैति वै। परिणामादिसंभूतां तद्वस्तु नृप तच्च किम्।।' (वि0 पु0 2।13।100) इतिअत्रापि'अन्तवन्त इमे देहाः' (गीता 2।18)'अविनाशि तु तद्विद्धि' (गीता 2।17) इति उच्यते। तदेव सत्त्वासत्त्वव्यपदेशहेतुः इति गम्यते। अत्र तु सत्कार्यवादस्य असङ्गत्वात् न तत्परोऽयं श्लोकः। देहात्मस्वभावाज्ञानमोहितस्य तन्मोहशान्तये हि उभयोः नाशित्वानाशित्वरूपस्वभावविवेक एव वक्तव्यः।स एव'गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति' (गीता 2।11) इति प्रस्तुतः। स एव'अविनाशि तु तद्विद्धि' (गीता 2।17)'अन्तवन्त इमे देहाः' (गीता 2।18) इत्यनन्तरम् उपपाद्यते; अतो यथोक्त एव अर्थः।आत्मनः तु अविनाशित्वं कथम् उपपद्यते इति अत्र आह -- ।।2.16।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.16 'The unreal,' that is, the body, can never come into being. 'The real,' that is, the self, can never cease to be. The finale about these, the body and the self, which can be experienced, has been realised correctly by the seers of the Truth. As analyis ends in conclusion, the term 'finale' is here used. The meaning is this: Non-existence (i.e., perishableness) is the real nature of the body which is in itself insentient. Existence (i.e., imperishableness) is the real nature of the self, which is sentient. What follows is the justification of describing the body as 'unreal' and as having 'never come into being.'Non-existence has, indeed, the nature of perishableness, and existence has the nature of imperishableness, as Bhagavan Parasara has said: 'O Brahmana, apart from conscious entity there does not exist any group of things anywhere and at any time. Thus have I taught you what is real existence --- how conscious entity is real, and all else is unreal' (V. P., 2.12.43 - 45). 'The Supreme Reality is considered as imperishable by the wise. There is no doubt that what can be obtained from a perishable substance is also perishable' (Ibid., 2.14.24). 'That entity which even by a change in time cannot come to possess a difference through modification etc., is real. What is that entity, O King? (It is the self who retains Its knowledge)' (Ibid., 2.13.100).It is said here also: 'These bodies ... are said to have an end' (2.18) and 'Know That (the Atman) to be indestructible' (2.17). It is seen from this that this (i.e., perishableness of the body and imperishableness of the self) is the reason for the designating the Atman as 'existence' (Sattva) and body as 'non-existence' (Asvattva). This verse has no reference to the doctrine of Satkaryavada (i.e., the theory that effects are present in the cause), as such a theory has no relevance here. Arjuna is deluded about the true nature of the body and the self; so what ought to be taught to him in order to remove his delusion, is discrimination between these two --- what is qualified by perishablenss and what, by imperishableness. This (declaration) is introduced in the following way: 'For the dead, or for the living' (2.11).Again this poin is made clear immediately (by the words), 'Know that to be indestructible ...' (2.17) and 'These bodies ... are said to have an end' (2.18).How the imperishableness of the self is to be understood, Sri Krsna now teaches:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अस्तित्वरूपविकारं निराकुर्वन् अशोच्यतामाह -- नासत इति। उत्पत्यनन्तरभावित्वादस्तित्वविकारादिरिति भावः। यथा "असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत" तै.उ.2।7 इति श्रुतौ "कथमसतः सज्जायेत" छा.उ.6।2।2 इति तर्कविरोधादसद्वादो निराकृतस्तथाऽत्रापि भगवताऽसद्वादो निराक्रियते। असतः कालत्रयेऽप्यविद्यमानस्य खपुष्पादेर्भावः सत्ता न विद्यते। अथ च सतो विद्यमानस्य कालत्रयेऽपि सतोऽप्यात्मनः अभावो न। आत्मा नाऽभून्नास्ति न भविष्यतीत्यप्रतीतेः। असतो हि न सत्तेत्यतो देहादीनां सत्ताऽपि न वक्तुं शक्या विनाशित्वात्। असत्ताऽपि न वक्तुं शक्या, उत्पत्तिमत्त्वात्। यतोऽसतो भावः उत्पत्तिर्नोपपद्यते, इत्यतः सदसत्त्वं देहादिप्रपञ्चस्यास्य वाच्यं; सदसद्भिन्नत्वे च सदसत्वानपायात्। अत एवोक्तम् -- 'छाया प्रत्याह्वयाभासा असन्तोऽप्यर्थकारिणः। एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम्' इति विनाशिस्वरूपत्वेऽपि अर्थकारित्वात्सत्वम्'यथासतोदानयनाद्यभावात्' इति भागवतवाक्यात्। सदसत्स्वरूपमप्रकृतिकार्यत्वादपि तथात्वमिति वयमवोचाम। इदमेवानित्यत्वं प्रागभावप्रतियोगित्वेन ध्वंसप्रतियोगित्वात्। नित्यत्वं चास्य प्रकृतिकारणभूतसच्चिदानन्दात्मकब्रह्मानन्यत्वदृशेत्यवधेयम्। यथोक्तं श्रीविष्णुपुराणे -- 'तदेतदक्षयं नित्यं जगन्मुनिवराखिलम्' इत्यादि,'अक्षरात्मकमेतद्धि' इति च। न च वेदस्तुतावसत्त्वमेवास्योपपादितमिति वाच्यम्, ततो भेदेन सत्त्वनिराकरणात्। मीमांसकादिमतस्य निराकरणीयत्वेन कटाक्षितत्वमिति तत्रैवोक्तं'व्यवहृतये विकल्प ईषित' इत्यादि। यद्वा नासत इति। अत्रायं विचारः। सद्विविधं शुद्धमशुद्धं च, शुद्धमात्मगतं अशुद्धमनात्मगतमिति। तथा च असत आत्मापेक्षया शुद्धसत्त्वरहितस्य जनस्य देहादेर्भावः शुद्धं सत्वमस्तित्वं न विद्यते किन्तु विकृतमस्थिरं च तथा सतः शुद्धास्तित्ववत आत्मनः अक्षरात्मैकाभिप्रायेणैकवचनम्, तस्याभावोऽसत्वं शुद्धास्तित्वाभावो विकृतमस्तित्वं न विद्यते इति उभयोरनयोर्निर्णयस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः। एतेन वृद्धिविपरिणामावपि निराकृतौ ।।2.16।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु भवतु पुरुषैकत्वं तथापि तस्य सत्यस्य जडद्रष्टृत्वरूपः सत्य एव संसारः। तथाच शीतोष्णादिसुखदुःखकारणे सति तद्भोगस्यावश्यकत्वात्सत्यस्य च ज्ञानाद्विनाशानुपपत्तेः कथं तितिक्षा कथं वा सोऽमृतत्वाय कल्पत इति चेत्। न। कृत्स्नस्यापि द्वैतप्रपञ्चस्यात्मनि कल्पितत्वेन तज्ज्ञानाद्विनाशोपपत्तेः। शुक्तौ कल्पितस्य रजतस्य शुक्तिज्ञानेन विनाशवत्। कथं पुनरात्मानात्मनोः प्रतीत्यविशेषे आत्मवदनात्मापि सत्यो न भवेत् अनात्मवदात्मापि मिथ्या न भवेत् उभयोस्तुल्ययोगक्षेमत्वादित्याशङ्क्य विशेषमाह भगवान्। यत्कालतो देशतो वस्तुतो वा परिच्छिन्नं तदसत् यथा घटादि जन्मविनाशशीलं प्राक्कालेन परकालेन च परिच्छिद्यते ध्वंसप्रागभावप्रतियोगित्वात् कादाचित्कं कालपरिच्छिन्नमित्युच्यते। एंव देशपरिच्छिन्नमपि तदेव मूर्तत्वेन सर्वदेशावृत्तित्वात्। कालपरिच्छिन्नस्य देशपरिच्छेदनियमेऽपि देशपरिच्छिन्नत्वेनाभ्युपगतस्य परमाण्वादेस्तार्किकैः कालपरिच्छेदानभ्युपगमाद्देशपरिच्छेदोऽपि पृथगुक्तः। सच किंचिद्देशवृत्तिरत्यन्ताभावः। एंव सजातीयभेदो विजातीयभेदः स्वगतभेदश्चेति त्रिविधो भेदो वस्तुपरिच्छेदः। तथा वृक्षस्य वृक्षान्तराच्छिलादेः पत्रपुष्पादेश्च भेदः। अथवा जीवेश्वरभेदो जीवजगद्भेदो जीवपरस्परभेद ईश्वरजगद्भेदो जगत्परस्परभेद इति पञ्चविधो वस्तुपरिच्छेदः। कालदेशापरिच्छिन्नस्याप्याकाशादेस्तार्किकैर्वस्तुपरिच्छेदाभ्युपगमात्पृथङ्निर्देशः। एवं सांख्यमतेऽपि योजनीयम्। एतादृशस्यासतः शीतोष्णादेः कृत्स्नस्यापि प्रपञ्चस्य भावः सत्ता पारमार्थिकत्वं स्वान्यूनसत्ताकतादृशपरिच्छेदशून्यत्वं न विद्यते न संभवति, घटत्वाघटत्वयोरिव परिच्छिन्नत्वापरिच्छिन्नत्वयोरेकत्र विरोधात्। नहि दृश्यं किंचित्क्वचित्काले देशे वस्तुनि वा न निषिध्यते सर्वत्राननुगमात्, नवा सद्वस्तु क्वचिद्देशे काले वस्तुनि वा निषिध्यते सर्वत्रानुगमात्, तथाच सर्वत्रानुगते सद्वस्तुन्यननुगतं व्यभिचारि वस्तु कल्पितं रज्जुखण्ड इवानुगते व्यभिचारि सर्पधारादिकमिति भावः। ननु व्यभिचारिणः कल्पितत्वे सद्वस्त्वपि कल्पितं स्यात्तस्यापि तुच्छव्यावृत्तत्वेन व्यभिचारित्वादित्यत आह -- 'नाभावो विद्यते सत इति'। सदधिकरणकभेदप्रतियोगित्वं हि वस्तुपरिच्छिन्नत्वं, तच्च न तुच्छव्यावृत्तत्वेन। तुच्छे शशविषाणादौ सत्त्वायोगात्'सदसद्भ्यामभावो निरूप्यते' इति न्यायात्। एकस्यैव स्वप्रकाशस्य नित्यस्य विभोः सतः सर्वानुस्यूतत्वेन सद्व्यक्तिभेदानभ्युपगमात् घटः सन्नित्यादिप्रतीतेः सार्वंलौकिकत्वेन सतो घटाद्यधिकरणकभेदप्रतियोगित्वायोगात्, अभावः परिच्छिन्नत्वं देशतः कालतो वस्तुतो वा, सतः सर्वानुस्यूतसन्मात्रस्य न विद्यते न संभवति पूर्ववद्विरोधादित्यर्थः। ननु सन्नाम किमपि वस्तु नास्त्येव यस्य देशकालवस्तुपरिच्छेदः प्रतिषिध्यते। किं तर्हि सत्त्वं नाम परं सामान्यं यदाश्रयत्वेन द्रव्यगुणकर्मसु सद्व्यवहारः। तदेकाश्रयसंबन्धेन सामान्यविशेषसमवायेषु। तथाचासतः प्रागभावप्रतियोगिनो घटादेः सत्त्वं कारणव्यापारात् सतोऽपि तस्याभावः कारणनाशाद्भवत्येवेति कथमुक्तं'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' इति, एवं प्राप्ते परिहरति -- 'उभयोरपीत्यर्धेन'। उभयोरपि सदसतोः सतश्चासतश्चान्तो मर्यादा नियतरूपत्वं यत्सत्तत्सदेव यदसत्तदसदेवेति दृष्टो निश्चितः श्रुतिस्मृतियुक्तिभिर्विचारपूर्वकम्। कैः? तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यदर्शनशीलैर्ब्रह्मविद्भिः, नतु कुतार्किकैः। अतः कुतार्किकाणां न विपर्ययानुपपत्तिः। तुशब्दोऽवधारणे। एकान्तरूपो नियम एव दृष्टो नत्वनेकान्तरूपोऽन्यथाभाव इति तत्त्वदर्शिभिरेव दृष्टो नातत्त्वदर्शिभिरिति वा। तथाच श्रुतिः'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्' इत्युपक्रम्य'ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' इत्युपसंहरन्ती सदेकं सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यं सत्यं दर्शयति,'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' इत्यादिश्रुतिस्तु विकारमात्रस्य व्यभिचारिणो वाचारम्भणत्वेनानृतत्वं दर्शयति,'अन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छाद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः' इति श्रुतिः सर्वेषामपि विकाराणां सति कल्पितत्वं दर्शयति। सत्त्वं च न सामान्यं तत्र मानाभावात्। पदार्थमात्रसाधारण्यात्सत्सदिति प्रतीत्या द्रव्यगुणकर्ममात्रवृत्तिसत्त्वस्य स्वानुपपादकस्याकल्पनात् वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वात् एकरूपप्रतीतेकरूपविषयनिर्वाह्यत्वेन संबन्धभेदस्य स्वरूपस्य च कल्पयितुमनुचितत्वात् विषयस्याननुगमेऽपि प्रतीत्यनुगमे जातिमात्रोच्छेदप्रसङ्गात्। तस्मादेकमेव सद्वस्तु स्वतः स्फुरणरूपं ज्ञाताज्ञातावस्थाभासकं स्वतादात्म्याध्यासेन सर्वत्र सद्व्यवहारोपपादकं सन्घट इति प्रतीत्या तावत्सद्ध्यक्तिमात्राभिन्नत्वं घटे विषयीकृतम्, नतु सत्तासमवायित्वम्। अभेदप्रतीतेर्भेदघटितसंबन्धानिर्वाह्यत्वात्। एवं द्रव्यं सद्गुणः सन्नित्यादिप्रतीत्या सर्वाभिन्नत्वं सतः सिद्धम्। द्रव्यगुणभेदासिद्ध्या च न तेषु धर्मिषु सत्त्वं नाम धर्मः कल्प्यते किंतु सति धर्मिणि द्रव्याद्यभिन्नत्वं लाघवात्, तच्च वास्तवं न संभवतीत्याध्यासिकमित्यन्यत्। तदुक्तं वार्तिककारैः'सत्तातोऽपि न भेदः स्याद्द्रव्यत्वादेः कुतोऽन्यतः। एकाकारा हि संवित्तिः सद्द्रव्यं सद्गुणस्तथा।।' इत्यादि। सत्तापि नासतो भेदिका तस्याप्रसिद्धेः। द्रव्यत्वादिकं तु सद्धर्मत्वान्न सतो भेदकमित्यर्थः। अतएव घटाद्भिन्नः पट इत्यादिप्रतीतिरपि न भेदसाधिका घटपटतद्भेदानां सद्भेदेनैक्यात्। एवं यत्रैव न भेदग्रहस्तत्रैव लब्धपदा सती सदभेदप्रतीतिर्विजयते, तार्किकैः कालपदार्थस्य सर्वात्मकस्याभ्युपगमात्तेनैव सर्वव्यवहारोपपत्तौ तदतिरिक्तपदार्थकल्पने मानाभावात्तस्यैव सर्वानुस्यूतस्य सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वतादात्म्येन प्रतीत्युपपत्तेः स्फुरणस्यापि सर्वानुस्यूतत्वेनैकत्वान्नित्यत्वं विस्तरेणाग्रिमश्लोके वक्ष्यते। तथाच यथा कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्य पटादेर्न देशान्तरे कालान्तरे वा घटत्वं, एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्यान्यत्राघटत्वं शक्रेणापि न शक्यते संपादयितुं पदार्थस्वभावभङ्गायोगात्, एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतो देशान्तरे कालान्तरे वा सत्त्वं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतोऽन्यत्रासत्त्वं न शक्यते संपादयितुं युक्तिसामान्यात्, अत उभयोर्नियतरूपत्वमेव द्रष्टव्यमित्यद्वैतसिद्धौ विस्तरः। अतः सदेव वस्तु मायाकल्पिताऽसन्निवृत्त्याऽमृतत्वाय कल्पते सन्मात्रदृष्ट्या च तितिक्षाप्युपपद्यत इति भावः ।।2.16।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
नित्य आत्मेत्युक्तम्, किमात्मैव नित्य आहोस्विदन्यदपि? अन्यदपि; तत्किमिति आह -- नास इति नासतः कारणस्य सतो ब्रह्मणश्चाभावा न विद्यते -- 'प्रकृतिः पुरुपश्चैव नित्यां कालश्च सत्तम' इति वचनाच्छीविष्णुपुराणं। पृथग्विद्यत इत्यादरार्थः। असतः कारणत्वं च -- 'सदसद्रूपया चासों गुणमय्याऽगुणो विभुः' इति भागवते, "असतः सदजायत" इति च, अव्यक्तेश्च। सम्प्रदायश्चैतत्सिद्धमित्याह -- 'उभयोरपीति'। अन्तो निर्णयः ।।2.16।।

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