शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-01


मूल स्लोकः

सञ्जय उवाच

तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।




English translation by Swami Sivananda
2.1 Sanjaya said -- To him who was thus overcome with pity and who was despondent, with eyes full of tears and agitated, Madhusudana (the destroyer of Madhu) or Krishna spoke these words.


English commentary by Swami Sivananda
2.1 तम् to him, तथा thus, कृपया with pity, आविष्टम् overcome, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् with eyes filled with tears and agitated, विषीदन्तम् despondent, इदम् this, वाक्यम् speech, उवाच spoke, मघुसूदनः Madhusudana.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सञ्जय बोले - वैसी कायरतासे आविष्ट उन अर्जुनके प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओंके कारण जिनके नेत्रोंकी देखनेकी शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले ।।2.1।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तं तथा कृपयाविष्टम् -- अर्जुन रथमें सारथिरूपसे बैठे हुए भगवान्को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्धमें मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं? अर्थात् मेरे-जैसे शूरवीरके साथ कौन-कौन-से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़नेकी उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुनमें युद्धके लिये इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियोंको देखकर उनके मरनेकी आशंकासे मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीरमें कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथसे धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुनका यह स्वभाव कि न दैन्यं न पलायनम् और कहाँ अर्जुनका कायरताके दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना! बड़े आश्चर्यके साथ सञ्जय यही भाव उपर्युक्त पदोंसे प्रकट कर रहे हैं।पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी सञ्जयने अर्जुनके लिये कृपया परयाविष्टः पदोंका प्रयोग किया है।अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् -- अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते।विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः -- इस प्रकार कायरताके कारण विषाद करते हुए अर्जुनसे भगवान् मधुसूदनने ये (आगे दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें कहे जानेवाले) वचन कहे।यहाँ विषीदन्तमुवाच कहनेसे ही काम चल सकता था, इदं वाक्यम् कहनेकी जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि उवाच क्रियाके अन्तर्गत ही वाक्यम् पद आ जाता है। फिर भी वाक्यम् पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी, उसपर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचानेवाली है। अर्जुनका युद्धसे उपराम होनेका जो निर्णय था, उसमें खलबली मचा देनेवाली है। अर्जुनको अपने दोषका ज्ञान कराकर अपने कल्याणकी जिज्ञासा जाग्रत् करा देनेवाली है। इस गम्भीर अर्थवाली वाणीके प्रभावसे ही अर्जुन भगवान्का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (2। 7)।सञ्जयके द्वारा मधुसूदनः पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण ' मधु नामक' दैत्यको मारनेवाले अर्थात् दुष्ट स्वभाववालोंका संहार करनेवाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाववाले दुर्योधनादिका नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं।सम्बन्ध -- भगवान्ने अर्जुनके प्रति कौन-से वचन कहे -- इसे आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं ।।2.1।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.1।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
संजय उवाच -- श्रीभगवानुवाच -- एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच ।।2.1।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.1 - 2.3 Sanjaya said --- Lord said -- When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: 'What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
वैराग्यं प्रथमेऽध्याये पार्थदुःखमुदीरितम्। अधिकारी त्वतः सिद्धः साङ्ख्ययोगनिरूपणे।।1।।तौ विद्यापर्वरूपत्त्वाद्धरिवेशानुकारिणौ। आत्मस्वरूपविज्ञानस्थिरबुद्धिप्रयोजनौ।।2।।ततोंऽशत्वपरिस्फूर्त्या भवेदाश्रयणादरः। तदाश्रयवतः कार्यं तदाज्ञाधर्मपालनम्।।3।।अतस्तदाज्ञारूपेण युद्धादिकरणं मतम्। न पुष्टिमिश्रभक्तो हि साङ्ख्यमात्ररुचिर्भवेत्।।4।।मध्ये स्वधर्मवचनं यदुक्तं साङ्ख्ययोगयोः। तेन तद्धृदि पुष्टिस्थः प्रकारः सम्भविष्यति।।5।।द्वितीये पूर्वमध्याये विषादः साङ्ख्यमुच्यते। तत्र स्वधर्मो योगान्ते स्थिरबुद्धिप्रयोजनः।।6।।ततः किं कृतमित्यपेक्षायां पुनः सञ्जय उवाच -- तं तथेति ।।2.1।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवंलक्षणया बुद्ध्या युद्धवैमुख्यमर्जनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यमप्रचलितमवधार्य स्वस्थहृदयस्य धृतराष्ट्रस्य हर्षनिमित्तां ततः किंवृत्तमित्याकाङ्क्षामपनिनीषुः संजयस्तं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। कृपा ममैत इति व्यामोहनिमित्तः स्नेहविशेषः। तया स्वभावसिद्धया आविष्टं व्याप्तम्। अर्जुनस्य कर्मत्वं कृपायाश्च कर्तृत्वं वदता तस्या आगन्तुकत्वं व्युदस्तम्। अतएव विषीदन्तं स्नेहविषयीभूतस्वजनविच्छेदाशङ्कानिमित्तः शोकापरपर्यायश्चित्तव्याकुलीभावो विषादस्तं प्राप्नुवन्तम्। अत्र विषादस्य कर्मत्वेनार्जुनस्य कर्तृत्वेन च तस्यागन्तुकत्वं सूचितम्। अतएव कृपाविषादवशादश्रुभिः पूर्णे आकुले दर्शनाक्षमे चेक्षणे यस्य तम्। एवमश्रुपातव्याकुलीभावाख्यकार्यद्वयजनकतया परिपोषं गताभ्यां कृपाविषादाभ्यामुद्विग्नं तमर्जुनमिदं सोपपत्तिकं वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच नतूपेक्षितवान्। मधुसूदन इति स्वयं दुष्टनिग्रहकर्ताऽर्जुनं प्रत्यपि तथैव वक्ष्यतीति भावः ।।2.1।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.1।।

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