शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-37


मूल स्लोकः

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युध्दाय कृतनिश्चयः।।2.37।।




English translation by Swami Sivananda
2.37 Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up, O son of Kunti, resolved to fight.


English commentary by Swami Sivananda
2.37 हतः slain, वा or, प्राप्स्यसि (thou) wilt obtain, स्वर्गम् heaven, जित्वा having conquered, वा or, भोक्ष्यसे (thou) wilt enjoy, महीम् the earth, तस्मात् therefore, उत्तिष्ठ stand up, कौन्तेय O son of Kunti, युद्धाय for fight, कृतनिश्चयः resolved.Commentary: In either case you will be benefited. Therefore, stand up with the firm resolution: "I will conquer the enemy or die."



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।।2.37।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् -- इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे यह वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहां पृथ्वीका राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफ से लाभ-ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि है। अतः तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये।स्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चियः -- यहाँ कौन्तेय सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि जब मैं सन्धिका प्रस्ताव लेकर कौरवोंके पास गया था, तब माता कुन्तीने तुम्हारे लिये यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध करो। अतः तुन्हें युद्धसे निवृत्त नहीं होना चाहिये, प्रत्युत युद्धका निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये।अर्जुनका युद्ध न करनेका निश्चय था और भगवान्ने इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें युद्ध करनेकी आज्ञा दे दी। इससे अर्जुनके मनमें सन्देह हुआ कि युद्ध करना ठीक है या न करना ठीक है। अतः यहाँ भगवान् उस सन्देह को दूर करनेके लिये कहते हैं कि तुम युद्ध करनेका एक निश्चय कर लो उसमें सन्देह मत रखो।यहाँ भगवान्का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्यको किसी भी हालतमें प्राप्त कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। कर्तव्यका पालन करनेमें ही मनुष्यकी मनुष्यता है ।।2.37।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्, हतः सन् स्वर्गं प्राप्स्यसि। जित्वा वा कर्णादीन् शूरान् भोक्ष्यसे महीम्। उभयथापि तव लाभ एवेत्यभिप्रायः। यत एवं तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः 'जेष्यामि शत्रून्, मरिष्यामि वा' इति निश्चयं कृत्वेत्यर्थः।।तत्र युद्धं स्वधर्म इत्येवं युध्यमानस्योपदेशमिमं श्रृणु -- ।।2.37।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.37 Again, by undertaking the fight with Karna and others, va, either; hatah, by being killed; prapsyasi, you will attain; svargam, heaven; or jitva, by winning over Karna and other heroes; bhoksyase, you will enjoy; mahim, the earth. The purport is that in either case you surely stand to gain. Since this is so, Kaunteya, O son of Kunti; tasmat, therefore; uttistha, rise up; krta-niscayah, with determination; yuddhaya, for fighting, i.e. with the determination, 'I shall either defeat the enemies or shall die.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
पक्षान्तरमें कर्ण आदि शूरवीरोंके साथ युद्ध करने पर -- -- या तो उनके द्वारा मारा जाकर ( तू ) स्वर्गको प्राप्त करेगा अथवा कर्णादि शूरवीरोंको जीतकर पृथिवीका राज्य भोगेगा। अभिप्राय यह कि दोनों तरहसे तेरा लाभ ही है। जब कि यह बात है, इसलिये हे कौन्तेय ! युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा अर्थात् 'मैं या तो शत्रुओंको जीतूँगा या मर ही जाऊँगा' ऐसा निश्चय करके खड़ा हो जा ।।2.37।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
धर्मयुद्धे परैः हतः चेत् तत एव परमनिःश्रेयसं प्राप्स्यसि; परान् वा हत्वा अकण्टकं राज्यं भोक्ष्यसे। अनभिसंहितफलस्य युद्धाख्यस्य धर्मस्य परमनिःश्रेयसोपायत्वात्, तत् च परमनिःश्रेयसं प्राप्स्यसि। तस्माद् युद्धाय उद्योगः परमपुरुषार्थलक्षणमोक्षसाधनम् इति निश्चित्य तदर्थम् उत्तिष्ठ। कुन्तीपुत्रस्य तव एतद् एव युक्तम् इत्यभिप्रायः।मुमुक्षोः युद्धानुष्ठानप्रकारम् आह -- ।।2.37।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.37 If you are slain in a righteous war by enemies, you shall thereby attain supreme bliss. Or, slaying the enemies, you shall enjoy this kingdom without obstacles. As the duty called war, when done without attachment to the fruits, becomes the means for winning supreme bliss, you will attain that supreme bliss. Therefore, arise, assured that engagement in war (here the duty) is the means for attaining release, which is known as man's supreme goal. This alone is suitable for you, the son of Kunti. This is the purport.Sri Krsna then explains to the aspirant for liberation how to conduct oneself in war.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यच्चोक्तं'न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः' 2।6 इति तत्राह -- हतो वेति। स्वर्गं प्राप्स्यसि जित्वा वा महीं भोक्ष्यसे। पक्षद्वयेऽपि तव लाभ इति भावः ।।2.37।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु तर्हि युद्धे गुर्वादिवधवशान्मध्यस्थकृता निन्दा, ततो निवृत्तौ तु शत्रुकृता निन्देत्युभयतःपाशा रज्जुरित्याशङ्क्य जये पराजये च लाभध्रौव्याद्युद्धार्थमेवोत्थानमावश्यकमित्याह। स्पष्टं पूर्वार्धम्। यस्मादुभयथापि ते लाभस्तस्माज्जेष्यामि शत्रून्मरिष्यामि वेति कृतनिश्चयः सन्युद्धायोत्तिष्ठ, अन्यतरफलसंदेहेऽपि युद्धकर्तव्यताया निश्चितत्वात्। एतेन'न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः' इत्यादि परिहृतम् ।।2.37।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.37।।

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