गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-40


मूल स्लोकः

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।




English translation by Swami Sivananda
1.40. In the destruction of a family, the immemorial religiousrites of that family perish; on the destruction of spirituality, impiety,indeed, overcomes the whole family.


English commentary by Swami Sivananda
1.40 कुलक्षये in the destruction of a family, प्रणश्यन्ति perish, कुलधर्माः family religious rites, सनातनाः immemorial, धर्मे spirituality, नष्टे being destroyed, कुलम् कृत्स्नम् the whole family, अधर्मः impiety, अभिभवति overcomes, उत indeed.Commentary: Dharma -- the duties and ceremonies practised by the family in accordance with the injunctions of the scriptures.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कुलका क्षय होनेपर सदासे चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेपर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुलको अधर्म दबा लेता है ।।1.40।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः -- जब युद्ध होता है, तब उसमें कुल-(वंश-) का क्षय (ह्रास) होता है। जबसे कुल आरम्भ हुआ है, तभीसे कुलके धर्म अर्थात् कुलकी पवित्र परम्पराएँ, पवित्र रीतियाँ, मर्यादाएँ भी परम्परासे चलती आयी हैं। परन्तु जब कुलका क्षय हो जाता है, तब सदासे कुलके साथ रहनेवाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जन्मके समय, द्वजातिसंस्कारके समय, विवाहके समय, मृत्युके समय और मृत्युके बाद किये जानेवाले जो-जो शास्त्रीय पवित्र रीति-रिवाज हैं, जो कि जीवित और मृतात्मा मनुष्योंके लिये इस लोकमें और परलोकमें कल्याण करनेवाले हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कारण कि जब कुलका ही नाश हो जाता है, तब कुलके आश्रित रहनेवाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे? धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत -- जब कुलकी पवित्र मर्यादाएँ, पवित्र आचरण नष्ट हो जाते हैं, तब धर्मका पालन न करना और धर्मसे विपरीत काम करना अर्थात् करनेलायक कामको न करना और न करनेलायक कामको करनारूप अधर्म सम्पूर्ण कुलको दबा लेता है अर्थात् सम्पूर्ण कुलमें अधर्म छा जाता है।अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब कुल नष्ट हो जायगा, कुल रहेगा ही नहीं, तब अधर्म किसको दबायेगा? इसका उत्तर यह है कि जो लड़ाईके योग्य पुरुष हैं, वे तो युद्धमें मारे जाते हैं; किन्तु जो लड़ाईके योग्य नहीं हैं, ऐसे जो बालक और स्त्रियाँ पीछे बच जाती हैं, उनको अधर्म दबा लेता है। कारण कि जब युद्धमें शस्त्र, शास्त्र, व्यवहार आदिके जानकार और अनुभवी पुरुष मर जाते हैं, तब पीछे बचे लोगोंको अच्छी शिक्षा देनेवाले, उनपर शासन करनेवाले नहीं रहते। इससे मर्यादाका, व्यवहारका ज्ञान न होनेसे वे मनमाना आचरण करने लग जाते हैं अर्थात् वे करनेलायक कामको तो करते नहीं और न करनेलायक कामको करने लग जाते हैं। इसलिये उनमें अधर्म फैल जाता है ।।1.40।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.40 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.40 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.40।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- संजय उवाच -- स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत् ।।1.40।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.26 - 1.47 Arjuna said --- Sanjaya said -- Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.'He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka. ।।1.40 -- 1.42।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अस्मदीयैः पतिभिर्धर्मतिक्रम्य कुलक्षयः कृतश्चेदस्माभिरपि व्यभिचारे कृते को दोषः स्यादित्येवं कुतर्कहताः कुलस्त्रियः प्रदुष्येयुरित्यर्थः। अथवा कुलक्षयकारिपतितपतिसंबन्धादेव स्त्रीणां दुष्टत्वम्'आशुद्धेः संप्रतीक्ष्यो हि महापातकदूषितः' इत्यादिस्मृतेः ।।1.40।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.40।।

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