शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-36


मूल स्लोकः

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।2.36।।




English translation by Swami Sivananda
2.36 Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this?


English commentary by Swami Sivananda
2.36 अवाच्यवादान् words that are improper to be spoken, च and, बहून् many, वदिष्यन्ति will say, तव thy, अहिताः enemies, निन्दन्तः cavilling, तव thy, सामर्थ्यम् power, ततः than this, दुःखतरम् more painful, नु indeed, किम् what.Commentary: There is really no pain more unbearable and tormenting that that of slander thus incurred.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
तेरे शत्रुलोग तेरी सार्मथ्यकी निन्दा करते हुए न कहनेयोग्य बहुत-से वचन कहेंगे। उससे बढ़कर और दुःखकी बात क्या होगी? ।।2.36।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अवाच्यवादांश्च ... निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम् -- ' अहित' नाम शत्रुका है, अहित करनेवालेका है। तेरे जो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखनेपर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करनेवाले हैं। वे तेरी सामर्थ्यको जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है। ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करेंगे कि यह तो हिजड़ा है। देखो! यह युद्धके मौकेपर हो गया न अलग! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस प्रकार तुझे दुःखी करनेके लिये, तेरे भीतर जलन पैदा करनेके लिये न जाने कितने न कहने-लायक वचन कहेंगे। उनके वचनोंको तू कैसे सहेगा?सम्बन्ध -- पीछेके चार श्लोकोंमें युद्ध न करनेसे हानि बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें युद्ध करनेसे लाभ बताते हैं ।।2.36।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अवाच्यवादान् अवक्तव्यवादांश्च बहून् अनेकप्रकारान् वदिष्यन्ति तव अहिताः शत्रवः निन्दन्तः कुत्सयन्तः तव त्वदीयं सामर्थ्यं निवातकवचादियुद्धनिमित्तम्। ततः तस्मात् निन्दाप्राप्तेर्दुःखात् दुःखतरं नु किम्, ततः कष्टतरं दुःखं नास्तीत्यर्थः।।युद्धे पुनः क्रियमाणे कर्णादिभिः -- ।।2.36।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.36 Ca, and besieds; tava, your; ahitah, enemies; vadisyanti, will speak; bahun, many, various kinds of; avacya-vadan, indecent words, unutterable words; nindantah, while denigrating, scorning; tava, your; samarthyam, might earned from battles against Nivatakavaca and others. Therefore, kim nu, what can be; duhkhataram, more painful; tatah, than that, than the sorrow arising from being scorned? That is to say, there is no greater pain than it.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तथा -- वे तेरे शत्रुगण, निवातकवचादिके साथ युद्ध करनेमें दिखलाये हुए तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए बहुत-से -- अनेक प्रकारके न कहने योग्य वाक्य भी तुझे कहेंगे। उस निन्दाजनित दुःखसे अधिक बड़ा दुःख क्या है? अर्थात् उससे अधिक कष्टकर कोई भी दुःख नहीं है ।।2.36।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
शूराणाम् अस्माकं सन्निधौ कथम् अयं पार्थः क्षणम् अपि स्थातुं शक्नुयाद् अस्मत्संनिधानाद् अन्यत्र हि अस्य सामर्थ्यम् इति तव सामर्थ्यं निन्दन्तः शूराणाम् अग्रे अवाच्यवादान् च बहून् वदिष्यन्ति तव शत्रवो धार्तराष्ट्राः ततः अधिकतरं दुःखं किं तव? एवंविधावाच्यश्रवणात् मरणम् एव श्रेयः, इति त्वम् एव मन्यसे।अतः शूरस्य आत्मना परेषां हननम् आत्मनो वा परैः हननम् उभयम् अपि श्रेयसे भवति इति आह -- ।।2.36।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.36 Moreover, your enemies, the sons of Dhrtarastra, will make many remarks unutterably slanderous and disparaging to heroes, saying, 'How can this Partha stand in the presence of us, who are heroes, even for a moment? His prowess is elsewhere than in our presence.' Can there be anything more painful to you than this? You yourself will understand that death is preferable to subjection to disparagement of this kind.Sri Krsna now says that for a hero, enemies being slain by oneself and oneself being slain by enemies are both conducive to supreme bliss.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
किञ्च अवाच्यवादानिति। स्पष्टम् ।।2.36।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु भीष्मादयो महारथा न बहु मन्यन्तां दुर्योधनादयस्तु शत्रवो बहु मंस्यन्ते मां युद्धनिवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यत आह -- तवासाधारणं यत्सामर्थ्यं लोकप्रसिद्धं तन्निन्दन्तस्तव शत्रवो दुर्योधनादयोऽवाच्यान्वादान्वचनानर्हान्षण्ढतिलादिरूपानेव शब्दान्बहूननेकप्रकारान्वदिष्यन्ति नतु बहु मंस्यन्त इत्यभिप्रायः। अथवा तव सामर्थ्यं स्तुतियोग्यत्वं तव निन्दन्तोऽहितो अवाच्यवादान्वदिष्यन्तीत्यन्वयः। ननु भीष्मद्रोणादिवधप्रयुक्तं कष्टतरं दुःखमसहमानो युद्धान्निवृतः शत्रुकृतसामर्थ्यनिन्दनादिदुःखं सोढुं शक्ष्यामीत्यत आह -- ततः तस्मान्निन्दाप्राप्तिदुःखात्किंनु दुःखतरम्। ततोऽधिकं किमपि दुःखं तास्तीत्यर्थः ।।2.36।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.36।।

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