मूल स्लोकः
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।।
English translation by Swami Sivananda
1.36. By killing these sons of Dhritarashtra, what pleasure canbe ours, O Janardana? Only sin will accrue to us from killing these felons.
English commentary by Swami Sivananda
1.36 निहत्य having slain, धार्तराष्ट्रान् sons of Dhritarashtra, नः to us, का what, प्रीतिः pleasure, स्यात् may be, जनार्दन O Janardana, पापम् sin, एव only, आश्रयेत् would take hold, अस्मान् to us, हत्वा having killed, एतान् these, आततायिनः felons.Commentary: 'Janardana' means 'one who is worshipped by all for prosperity and salvation' -- Krishna.He who sets fire to the house of another, who gives poision, who runs with sword to kill, who has plundered wealth and lands, and who has taken hold of the wife of somebody else is an atatayi. Duryodhana had done all these evil actions.
Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको मारकर हमलोगोंको क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियोंको मारनेसे तो हमें पाप ही लगेगा ।।1.36।।
Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः ... हत्वैतानाततायिनः -- धृतराष्ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे -- ऐसा पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या? तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा।आततायी छः प्रकारके होते हैं -- आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ, धनको हरनेवाला, जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला (टिप्पणी प0 25)। दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था। हाथमें शस्त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने ' मैंने तेरेको जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है ' आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था।शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता -- नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन (मनुस्मृति 8। 351)। परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये -- न हिंस्यात्सर्वा भूतानि हिंसा न करना परमधर्म है -- अहिंसा परमो धर्मः (टिप्पणी प0 26)। अतः क्रोध-लोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करें?आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही; परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा; क्योंकि शास्त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है -- स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्। अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय? उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है!सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं ।।1.36।।
Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.36 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.36 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.36।।
Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- संजय उवाच -- स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत् ।।1.36।।
English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.26 - 1.47 Arjuna said --- Sanjaya said -- Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.'He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka. ।।1.34 -- 1.37।।
Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
फलाभावदनर्थसंभवाच्च परहिंसा न कर्तव्येति'नच श्रेयोऽनुपश्यामि' इत्यारभ्योक्तं तदुपसंहरति। अदृष्टफलाभावोऽनर्थसंभवश्च तच्छब्देन परामृश्यते। दृष्टसुखाभावमाह -- 'स्वजनं हीति'। माधवेति लक्ष्मीपतित्वान्नालक्ष्मीके कर्मणि प्रवर्तयितुमर्हसीति भावः ।।1.36।।
Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.36।।
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