शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-15


मूल स्लोकः

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।




English translation by Swami Sivananda
2.15 That firm man whom, surely, these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and pain are the same, is fit for attaining immortality.


English commentary by Swami Sivananda
2.15 यम् whom, हि surely, न व्यथयन्ति afflict not, एते these, पुरुषम् man, पुरुषर्षभ chief among men, समदुःखसुखम् same in pleasure and pain, धीरम् firm man, सः he, अमृतत्वाय for immortality, कल्पते is fit.Commentary -- Dehadhyasa or identification of the Self with the body is the cause of pleasure and pain. The more you are able to identify yourself with the immortal, all-pervading Self, the less will you be affected by the pairs of opposites (Dvandvas, pleasure and pain, etc.)Titiksha or the power of endurance develops the will-power. Calm endurance in pleasure and pain, and heat and cold is one of the qualifications of an aspirant on the path of Jnana Yoga. It is one of the Shatsampat or sixfold virtues. It is a condition of right knowledge. Titiksha by itself cannot give you Moksha or liberation, but still, when coupled with discrimination and dispassion, it becomes a means to the attainment of Immortality or knowledge of the Self. (Cf.XVII.53)



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुँचाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है ।।2.15।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- पुरुषर्षभ -- मनुष्य प्रायः परिस्थितियोंको बदलनेका ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अर्जुनने उसको बदलनेका विचार न करके अपने कल्याणका विचार कर लिया है। यह कल्याणका विचार करना ही मनुष्योंमें उनकी श्रेष्ठता है।समदुःखसुखं धीरम् -- धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम होता है। अन्तःकरणकी वृत्तिसे ही सुख और दुःख -- ये दोनों अलग-अलग दीखते हैं। सुख-दुःखके भोगनेमें पुरुष (चेतन) हेतु है, और वह हेतु बनता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे (गीता 13। 20-21)। जब वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःखको भोगनेवाला कोई नहीं रहता। अतः अपने-आपमें स्थित होनेसे वह सुख-दुःखमें स्वाभाविक ही सम हो जाता है।यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम् -- धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृतिके मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थोंके वियोगसे जो दुःख होता है, वह भी व्यथा है। परन्तु जिसकी दृष्टि समताकी तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दुःखी नहीं कर सकते। समताकी तरफ दृष्टि रहनेसे अनुकूलताको लेकर उस सुखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्तःकरणमें उस सुखका स्थायी रूपसे संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आनेपर उस दुःखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्तःकरणमें उस दुःखका स्थायीरूपसे संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दुःखके संस्कार न पड़नेसे वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्तःकरणमें सुख-दुःखका ज्ञान होनेसे वह स्वयं सुखी-दुःखी नहीं होता।सोऽमृतत्वाय कल्पते -- ऐसा धीर मनुष्य अमरताके योग्य हो जाता है अर्थात् उसमें अमरता प्राप्त करनेकी सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य, योग्यता आनेपर वह अमर हो ही जाता है, इसमें देरीका कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वतःसिद्ध है। केवल पदार्थोंके संयोग-वियोगसे जो अपनेमें विकार मानता था, यही गलती थी। विशेष बातयह मनुष्य-योनि सुख-दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है, प्रत्युत सुख-दुःखसे ऊँचा उठकर महान् आनन्द, परम शान्तिकी प्राप्तिके लिये मिली है, जिस आनन्द, सुख-शान्तिके प्राप्त होनेके बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता (गीता 6। 22)। अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके होनेमें अथवा उनकी सम्भावनामें हम सुखी होंगे अर्थात् हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदिको प्राप्त करनेकी कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलताका सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी शक्ति अनुकूलताके भोगमें खर्च हो जायगी, जिससे अनुकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। इसी रीतिसे प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदिके आनेपर अथवा उनकी आशंकासे हम दुःखी होंगे तो प्रतिकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। दुःखको सहनेकी सामर्थ्य हमारेमें नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलताके भोगमें ही फँसे रहेंगे और दुःखी होते रहेंगे।अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर सुख-सामग्रीका अपने सुख, आराम, सुविधाके लिये उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलताका भोग हुआ। परन्तु निर्वाह-बुद्धिसे उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्रीको अभावग्रस्तोंकी सेवामें लगा दें तो यह अनुकूलताका सदुपयोग हुआ। अतः सुख-सामग्री को दुःखियोंकी ही समझें। उसमें दुःखियोंका ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होनेका सुख होता है, अभिमान होता है। परन्तु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुननेमें जो आते हैं, वे सब-के-सब करोड़पति हों, तो क्या हमें लखपति होनेका सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा। अतः हमें लखपति होनेका सुख तो अभावग्रस्तोंने, दरिद्रोंने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्रीसे अभावग्रस्तोंकी सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसीसे सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख-सामग्री है, वह दुःखी आदमियोंकी ही दी हुई है। अतः उस सुख-सामग्रीको दुःखियोंकी सेवामें लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।अब विचार यह करना है कि प्रतिकूलताका सदुपयोग कैसे किया जाय? दुःखका कारण सुखकी इच्छा, आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है, जब भीतर सुखकी इच्छा रहती है। अगर हम सावधानीके साथ अनुकूलताकी इच्छाका, सुखकी आशाका त्याग कर दें, तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थितिमें दुःख नहीं हो सकता अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति दुःखी नहीं कर सकती। जैसे, रोगीको कड़वी-से-कड़वी दवाई लेनी पड़े, तो भी उसे दुःख नहीं होता, प्रत्युत इस बातको लेकर प्रसन्नता होती है कि इस दवाईसे मेरा रोग नष्ट हो रहा है। ऐसे ही पैरमें काँटा गहरा गड़ जाय और काँटा निकालनेवाला उसे निकालनेके लिये सुईसे गहरा घाव बनाये तो बड़ी पीड़ा होती है। उस पीड़ासे वह सिसकता है, घबराता है, पर वह काँटा निकालनेवालेको यह कभी नहीं कहता कि भाई, तुम छोड़ दो, काँटा मत निकालो। काँटा निकल जायगा, सदाके लिये पीड़ा दूर हो जायगी -- इस बातको लेकर वह इस पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है। यह जो सुखकी इच्छाका त्याग करके दुःखको, पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सहना है यह प्रतिकूलताका सदुपयोग है। अगर वह कड़वी दवाई लेनेसे, काँटा निकालनेकी पीड़ासे दुःखी हो जाता है, तो यह प्रतिकूलताका भोग है, जिससे उसको भयंकर दुःख पाना पड़ेगा।यदि हम सुख-दुःखका उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्यमें हमें भोग-योनियोंमें अर्थात् स्वर्ग, नरक आदिमें जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगनेके स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुःखका भोग करते हैं, सुख-दुःखमें सम नहीं रहते, सुख-दुःखसे ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्तिके पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते।चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले और आने-जानेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं हैं; क्योंकि ये अनित्य हैं; क्षणभङ्गुर हैं। इनके प्राप्त होनेपर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शुरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख-दुःखके भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दुःखके भोगी बनकर हम भोगयोनिके ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें भुक्ति-(भोग-) की ही रुचि है, तो फिर भगवान् हमें मुक्ति कैसे देंगे? इस प्रकार यदि हम सुख-दुःखका उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे, तो हम सुख-दुःखसे ऊँचे उठ जायेंगे और महान् आनन्दका अनुभव कर लेंगे।सम्बन्ध -- अबतक देह-देहीका जो विवेचन हुआ है, उसीको भगवान् दूसरे शब्दोंसे आगेके तीन श्लोकोंमें कहते हैं ।।2.15।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- यं हि पुरुषं समे दुःखसुखे यस्य तं समदुःखसुखं सुखदुःखप्राप्तौ हर्षविषादरहितं धीरं धीमन्तं न व्यथयन्ति न चालयन्ति नित्यात्मदर्शनात् एते यथोक्ताः शीतोष्णादयः, सः नित्यात्मस्वरूपदर्शननिष्ठो द्वन्द्वसहिष्णुः अमृतत्वाय अमृतभावाय मोक्षायेत्यर्थः कल्पते समर्थो भवति।।इतश्च शोकमोहौ अकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तम्, यस्मात् -- ।।2.15।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.15 What will happen to one who bears cold and heat? Listen: Verily, the person...,'etc.(O Arjuna) hi, verily; yam purusam, the person whom; ete, these, cold and heat mentioned above; na, do not; vyathayanti, torment, do not perturb; dhiram, the wise man; sama-duhkha-sukham, to whom sorrow and happiness are the same, who is free from happiness and sorrow when subjected to pleasure and pain, because of his realization of the enternal Self; sah, he, who is established in the realization of the enternal Self, who forbears the opposites; kalpate, becomes fit; amrtattvaya, for Immortality, for the state of Immortality, i.e. for Liberation.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
शीत-उष्णादि सहन करनेवालेको क्या ( लाभ ) होता है? सो सुन -- सुख-दुःखको समान समझनेवाले अर्थात् जिसकी दृष्टिमें सुख-दुःख समान हैं -- सुख-दुःखकी प्राप्तिमें जो हर्ष-विषादसे रहित रहता है ऐसे जिस धीर -- बुद्धिमान् पुरुषको ये उपर्युक्त शीतोष्णादि व्यथा नहीं पहँचा सकते अर्थात् नित्य आत्मदर्शनसे विचलित नहीं कर सकते। वह नित्य आत्मदर्शननिष्ठ और शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेवाला पुरुष मृत्युसे अतीत हो जानेके लिये यानी मोक्षके लिये समर्थ होता है ।।2.15।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यं पुरुषं धैर्ययुक्तम् अवर्जनीयदुःखं सुखवन्मन्यमानम् अमृतत्वसाधनतया स्ववर्णोचितं युद्धादिकर्म अनभिसंहितफलं कुर्वाणं तदन्तर्गताः शस्त्रपातादिमृढुक्रूरस्पर्शा न व्यथयन्ति स एव अमृतत्वं साधयति, न त्वादृशो दुःखासहिष्णुः इत्यर्थः। अतः आत्मनां नित्यत्वाद् एतावद् अत्र कर्तव्यम् इत्यर्थः।यत्तु आत्मनां नित्यत्वं देहानां स्वाभाविकं नाशित्वं च शोकानिमित्तिम् उक्तम्'गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः' (गीता 2।11) इति; तद् उपपादयितुम् आरभते -- ।।2.15।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.15 That person endowed with courage, who considers pain as inevitable as pleasure, and who performs war and such other acts suited to his station in life without attachment to the results and only as a means of attaining immortality --- one whom the impact of weapons in war etc., which involve soft or harsh contacts, do not trouble, that person only attains immortality, not a person like you, who cannnot bear grief. As the selves are immortal, what is to be done here, is this much only. This is the meaning.Because of the immortality of the selves and the natural destructibility of the bodies, there is no cause for grief. It was told (previously): 'The wise grieve neither for the dead nor for the living' (2. 11). Now the Lord elucidates the same view.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
सहनमेवाऽमृतत्वे हेतुरित्याह -- यं हीति। न व्यथयन्ति धीरं, सोऽमृतत्वाय क्षमो भवति ।।2.15।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वन्तःकरणस्य सुखदुःखाद्याश्रयत्वे तस्यैव कर्तृत्वेन भोक्तृत्वेन च चेतनत्वमभ्युपेयम्, तथाच तद्व्यतिरिक्ते तद्भासके भोक्तरि मानाभावान्नाममात्रे विवादः स्यात्, तदभ्युपगमे च बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः अन्तःकरणस्य सुखदुःखाश्रयत्वेन बद्धत्वात्, आत्मनश्च तद्व्यतिरिक्तस्य मुक्तत्वादित्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह भगवान् -- यं स्वप्रकाशत्वेन स्वतएव प्रसिद्धं'अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवति' इति श्रुतेः। पुरुषं पूर्णत्वेन पुरि शयानं'स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैतेन किंचनानावृतं नैतेन किंचनासंवृतम्' इति श्रुतेः। समदुःखसुखं समे दुःखसुखे अनात्मधर्मतया भास्यतया च यस्य निर्विकारस्य स्वयंज्योतिषस्तम्। सुखदुःखग्रहणमशेषान्तःकरणपरिणामोपलक्षणार्थम्।'एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्धते नो कनीयान्' इति श्रुत्या वृद्धिकनीयस्तारूपयोः सुखदुःखयोः प्रतिषेधात्। धीरं धियमीरयतीति व्युत्पत्त्या चिदाभासद्वारा धीतादात्म्याध्यासेन धीप्रेरकम्। धीसाक्षिणमित्यर्थः।'स धीरः स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति' इति श्रुतेः। एतेन बन्धप्रसक्तिर्दर्शिता। तदुक्तम्'यतो मानानि सिध्यन्ति जाग्रदादित्रयं तथा। भावाभावविभागश्च स ब्रह्मास्मीति बोध्यते' इति। एते सुखदुःखदा मात्रास्पर्शाः हि यस्मान्न व्यथयन्ति परमार्थतो न विकुर्वन्ति, सर्वविकारभासकत्वेन विकारायोग्यत्वात्'सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः' इति श्रुतेः। अतः स पुरुषः स्वस्वरूपभूतब्रह्मात्मैक्यज्ञानेन सर्वदुःखोपादानतदज्ञाननिवृत्त्युपलक्षिताय निखिलद्वैतानुपरक्तस्वप्रकाशपरमानन्दरूपाय अमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते। योग्यो भवतीत्यर्थः। यदि ह्यात्मा स्वाभाविकबन्धाश्रयः स्यात्तदा स्वाभाविकधर्माणां धर्मिनिवृत्तिमन्तरेणानिवृत्तेर्न कदापि मुच्येत। तथाचोक्तम्'आत्मा कर्त्रादिरूपश्चेन्मा काङ्क्षीस्तर्हि मुक्तताम्। नहि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः।।' इति। प्रागभावासहवृत्तेर्युगपत्सर्वविशेषगुणनिवृत्तेर्धर्मिनिवृत्तेर्नान्तरीयकत्वदर्शनात्। अथात्मनि बन्धो न स्वाभाविकः किंतु बुद्ध्याद्युपाधिकृतः'आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः' इति श्रुतेः। तथाच धर्मिसद्भावेऽपि तन्निवृत्त्या मुक्त्युपपत्तिरितिचेत् हन्त तर्हि यः स्वधर्ममन्यनिष्ठतया भासयति स उपाधिरित्यभ्युपगमाद्बुद्ध्यादिरुपाधिः स्वधर्ममात्मनिष्ठतया भासयतीत्यायातम्। तथाचायातं मार्गे बन्धस्यासत्यत्वाभ्युपगमात्, नहि स्फटिकमणौ जपाकुसुमोपधाननिमित्तो लोहितिमा सत्यः, अतः सर्वसंसारधर्मासंसर्गिणोऽप्यात्मन उपाधिवशात्तत्संसर्गित्वप्रतिभासो बन्धः। स्वस्वरूपज्ञानेन तु स्वरूपाज्ञानतत्कार्यबुद्ध्याद्युपाधिनिवृत्त्या तन्निमित्तनिखिलभ्रमनिवृत्तौ निर्मृष्टनिखिलभास्योपरागतया शुद्धस्य स्वप्रकाशपरमानन्दतया पूर्णस्यात्मनः स्वत एव कैवल्यं मोक्ष इति न बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः। अतएव'नाममात्रे विवादः' इत्यपास्तम्, भास्यभासकयोरेकत्वानुपपत्तेः।'दुःखी स्वव्यतिरिक्तभास्यः भास्यत्वात् घटवत्' इत्यनुमानात्, भास्यस्य भासकत्वादर्शनात् एकस्यैव भास्यत्वे भासकत्वे च कर्तृकर्मविरोधादात्मनः कथमिति चेत्। न। तस्य भासकत्वमात्राभ्युपगमात्। अहं दुःखीत्यादिवृत्तिसहिताहंकारभासकत्वेन तस्य कदापि भास्यकोटावप्रवेशात्। अतएव'दुःखी न स्वातिरिक्तभासकापेक्षः भासकत्वात् दीपवत्' इत्यनुमानमपि न। भास्यत्वेन स्वातिरिक्तभासकसाधकेन प्रतिरोधात्। भासकत्वं च भानकरणत्वं स्वप्रकाशभानरूपत्वं वा। आद्ये दीपस्येव करणान्तरानपेक्षत्वेऽपि स्वातिरिक्तभानसापेक्षत्वं दुःखिनो न व्याहन्यते। अन्यथा दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यापत्तेः। द्वितीये त्वसिद्धो हेतुरित्यधिकबलतया भास्यत्वहेतुरेव विजयते बुद्धिवृत्त्यतिरिक्तभानानभ्युपगमात्। बुद्धिरेव भानरूपेतिचेत्। न। भानस्य सर्वदेशकालानुस्यूततया भेदकधर्मशून्यतया च विभोर्नित्यस्यैकस्य चानित्यपरिच्छिन्नानेकरूपबुद्धिपरिणामात्मकत्वानुपपत्तेः, उत्पत्तिविनाशादिप्रतीतेश्चावश्यकल्प्यविषयसंबन्धविषयतयाप्युपपत्तेः। अन्यथा तत्तज्ज्ञानोत्पत्तिविनाशभेदादिकल्पनायामतिगौरवापत्तेरित्याद्यन्यत्र विस्तरः। तथाच श्रुतिः'नहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्','आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः','महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एव','तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यभयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः' इत्याद्या विभुनित्यस्वप्रकाशज्ञानरूपतामात्मनो दर्शयति। एतेनाविद्यालक्षणादप्युपाधेर्व्यतिरेकः सिद्धः। अतोऽसत्योपाधिनिबन्धनबन्धभ्रमस्य सत्यात्मज्ञानान्निवृत्तौ मुक्तिरिति सर्वमवदातम्। पुरुषर्षभेति संबोधयन्स्वप्रकाशचैतन्यरूपत्वेन पुरुषत्वं परमानन्दरूपत्वेन चात्मन ऋषभत्वं सर्वद्वैतापेक्षया श्रेष्ठत्वमजानन्नेव शोचसि अतः स्वस्वरूपज्ञानादेव तव शोकनिवृत्तिः सुकरा'तरति शोकमात्मवित्' इति श्रुतेरिति सूचयति। अत्र पुरुषमित्येकवचनेन सांख्यपक्षो निराकृतः। तैः पुरुषबहुत्वाभ्युपगमात् ।।2.15।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
अतः प्रयोजनमाह -- 'यं हीति'। यमेते मात्रास्पर्शा न व्यथयन्ति। पुरिशयमेव सन्तं शरीरसम्बधाभावे सर्वेषां व्यथाभावात्पुरुषमिति विशेषणम्। कथं न व्यथयन्ति? समदुःखसुखत्वात्, तत्कथं? धैर्येण ।।2.15।।

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