शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-06


मूल स्लोकः

न चैतद्विदमः कतरन्नो गरीयो

यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6।।




English translation by Swami Sivananda
2.6 I can hardly tell which will be better, that we should conquer them or that they should conquer us. Even the sons of Dhritarashtra, after slaying whom we do not wish to live, stand facing us.


English commentary by Swami Sivananda
2.6 न not, च and, एतत् this, विद्मः (we) know, कतरत् which, नः for us, गरीयः better, यत् that, वा or, जयेम we should conquer, यदि if, वा or, नः us, जयेयुः they should conquer, यान् whom, एव even, हत्वा having slain, न not, जिजीविषामः we wish to live, ते those, अवस्थिताः (are) standing, प्रमुखे in face, धार्तराष्ट्राः sons of Dhritarashtra.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये युद्ध करना और न करना - इन दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं ।।2.6।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- न चैतद्विह्मः कतरन्नो गरीयः -- मैं युद्ध करूँ अथवा न करूँ -- इन दोनों बातोंका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ। कारण कि आपकी दृष्टिमें तो युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, पर मेरी दृष्टिमें गुरुजनोंको मारना पाप होनेके कारण युद्ध न करना ही श्रेष्ठ है। इन दोनों पक्षोंको सामने रखनेपर मेरे लिये कौन-सा पक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ है -- यह मैं नहीं जान पा रहा हूँ। इस प्रकार उपर्युक्त पदोंमें अर्जुनके भीतर भगवान्का पक्ष और अपना पक्ष दोनों समकक्ष हो गये हैं।यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः -- अगर आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध भी किया जाय, तो हम उनको जीतेंगे अथवा वे (दुर्योधनादि) हमारेको जीतेंगे -- इसका भी हमें पता नहीं है।यहाँ अर्जुनको अपने बलपर अविश्वास नहीं है, प्रत्युत भविष्यपर अविश्वास है; क्योंकि भविष्यमें क्या होनहार है -- इसका किसीको क्या पता?यानेव हत्वा न जिजीविषामः -- हम तो कुटुम्बियोंको मारकर जीनेकी भी इच्छा नहीं रखते; भोग भोगनेकी; राज्य प्राप्त करके हुक्म चलानेकी बात तो बहुत दूर रही! कारण कि अगर हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे, तो हम जीकर क्या करेंगे? अपने हाथोंसे कुटुम्बको नष्ट करके बैठे-बैठे चिन्ता-शोक ही तो करेंगे! चिन्ता-शोक करने और वियोगका दुःख भोगनेके लिये हम जीना नहीं चाहते।तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः -- हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। धृतराष्ट्रके सभी सम्बन्धी हमारे कुटुम्बी ही तो हैं। उन कुटुम्बियोंको मारकर हमारे जीनेको धिक्कार है!सम्बन्ध -- अपने कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनेको असमर्थ पाकर अब अर्जुन व्याकुलतापूर्वक भगवान्से प्रार्थना करते हैं ।।2.6।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.6 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.6 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.6।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत्, अस्तु, तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार ।।2.6।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः ।।2.6 -- 2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु भिक्षाशनस्य क्षत्रियं प्रति निषिद्धत्वाद्युद्धस्य च विहितत्वात्स्वधर्मत्वेन युद्धमेव तव श्रेयस्करमित्याशङ्क्याह -- एतदपि न जानीमो भैक्षयुद्धयोर्मध्ये कतरन्नोऽस्माकं गरीयः श्रेष्ठं किं भैक्षं हिंसाशून्यत्वात्, उत युद्धं स्वधर्मत्वादिति इदं च न विद्मः। आरब्धेऽपि युद्धे यद्वा वयं जयेमातिशयीमहि, यदि वा नोऽस्माञ्जयेयुर्धार्तराष्ट्राः। उभयोः साम्यपक्षोऽप्यर्थाद्बोद्धव्यः। किंच जातोऽपि जयो नः फलतः पराजय एव, यतो यान्बन्धून्हत्वा जीवितुमपि वयं नेच्छामः किं पुनर्विषयानुपभोक्तुं, त एवावस्थिताः संमुखे धार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्रसंबन्धिनो भीष्मद्रोणादयः सर्वेऽपि। तस्माद्भैक्षाद्युद्धस्य श्रेष्ठत्वं न सिद्धमित्यर्थः। तदेवं प्राक्तनेन ग्रन्थेन संसारदोषनिरूपणादधिकारिविशेषणान्युक्तानि। तत्र'नच श्रेयोऽनु पश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे' इत्यत्र रणे हतस्य परिव्राट्समानयोगक्षेमत्वोक्तेः'अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयः' इत्यादिश्रुतिसिद्धं श्रेयो मोक्षाख्यमुपन्यस्तम्। अर्थाच्च तदितरदश्रेय इति नित्यानित्यवस्तुविवेको दर्शितः,'न काङ्क्षे विजयं कृष्ण' इत्यत्रैहिकफलविरागः,'अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः, इत्यत्र पारलौकिकफलविरागः,'नरके नियतं वासः' इत्यत्र स्थूलदेहातिरिक्त आत्मा,'किं नो राज्येन' इति व्याख्यातवर्त्मना शमः,'किं भोगैः' इति दमः,'यद्यप्येते न पश्यन्ति' इत्यत्र निर्लोभता,'तन्मे क्षेमतरं भवेत्' इत्यत्र तितिक्षा, इति प्रथमाध्यायस्यार्थः स संन्याससाधनसूचनम्, अस्मिंस्त्वध्याये'श्रेयो भोक्तुं भैक्षमपि, इत्यत्र भिक्षाचर्योपलक्षितः सन्यासः प्रतिपादितः ।।2.6।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.6।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें