शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-07


मूल स्लोकः

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।।




English translation by Swami Sivananda
2.7 My heart is overpowered by the taint of pity; my mind is confused as to duty. I ask Thee: Tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple. Instruct me who has taken refuge in Thee.


English commentary by Swami Sivananda
2.7 कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः with nature overpowered by the taint of pity, पृच्छामि I ask, त्वाम् Thee, धर्मसंमूढचेताः with a mind in confusion about duty, यत् which, श्रेयः good, स्यात् may be, निश्चितम् decisively, ब्रूहि say, तत् that, मे for me, शिष्यः disciple, ते Thy, अहम् I, शाधि teach, माम् me, त्वाम् to Thee, प्रपन्नम् taken refuge.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कायरताके दोषसे उपहत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्तःकरणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित श्रेय हो, वह मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मेरेको शिक्षा दीजिये ।।2.7।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः (टिप्पणी प0 43.1) -- यद्यपि अर्जुन अपने मनमें युद्धसे सर्वथा निवृत्त होनेको सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पापसे बचनेके लिये उनको युद्धसे उपराम होनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था। इसलिये वे युद्धसे उपराम होना चाहते थे, और उपराम होनेको गुण ही मानते थे, कायरतारूप दोष नहीं। परन्तु भगवान्ने अर्जुनकी इस उपरतिको कायरता और हृदयकी तुच्छ दुर्बलता कहा, तो भगवान्के उन निःसंदिग्ध वचनोंसे अर्जुनको ऐसा विचार हुआ कि युद्धसे निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है। यह तो एक तरहकी कायरता ही है, जो मेरे स्वभावके बिलकुल विरुद्ध है; क्योंकि मेरे क्षात्र-स्वभावमें दीनता और पलायन (पीठ दिखाना) -- ये दोनों ही नहीं हैं (टिप्पणी प0 43.2)। इस तरह भगवान्के द्वारा कथित कायरतारूप दोषको अपनेमें स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोषके कारण मेरा क्षात्र-स्वभाव एक तरहसे दब गया है; और दूसरी बात, मैं अपनी बुद्धिसे धर्मके विषयमें कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी बुद्धिमें ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्मके विषयमें मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है!तीसरे श्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा दे दी थी कि ' हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको, कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़े हो जाओ'। इससे अर्जुनको धर्म-(कर्तव्य-) के विषयमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था। फिर भी सन्देह रहनेका कारण यह है कि एक तरफ तो युद्धमें कुटुम्बका नाश करना, पूज्यजनोंको मारना अधर्म (पाप) दीखता है, और दूसरी तरफ युद्ध करना क्षत्रियका धर्म दीखता है। इस प्रकार कुटुम्बियोंको देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिये और क्षात्र-धर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहिये -- इन दो बातोंको लेकर अर्जुन धर्म-संकटमें पड़ गये। उनकी बुद्धि धर्मका निर्णय करनेमें कुण्ठित हो गयी। ऐसा होनेपर ' अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है? मेरा धर्म क्या है?' इसका निर्णय करानेके लिये वे भगवान्से पूछते हैं।यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे -- इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि तू जो कायरताके कारण युद्धसे निवृत्त हो रहा है, तेरा यह आचरण अनार्यजुष्ट है अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष ऐसा आचरण नहीं करते, वे तो जिसमें अपना कल्याण हो, वही आचरण करते हैं। यह बात सुनकर अर्जुनके मनमें आया कि मुझे भी वही करना चाहिये, जो श्रेष्ठ पुरुष किया करते हैं। इस प्रकार अर्जुनके मनमें कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी और उसीको लेकर वे भगवान्से अपने कल्याणकी बात पूछते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाय, ऐसी बात मेरेसे कहिये।अर्जुनके हृदयमें हलचल (विषाद) होनेसे और अब यहाँ अपने कल्याणकी बात पूछनेसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य जिस स्थितिमें स्थित है, उसी स्थितिमें वह संतोष करता रहता है तो उसके भीतर अपने असली उद्देश्यकी जागृति नहीं होती। वास्तविक उद्देश्य -- कल्याणकी जागृति तभी होती है, जब मनुष्य अपनी वर्तमान स्थितिसे असन्तुष्ट हो जाय, उस स्थितिमें रह न सके।शिष्यस्तेऽहम् -- अपने कल्याणकी बात पूछनेपर अर्जुनके मनमें यह भाव पैदा हुआ कि कल्याणकी बात तो गुरुसे पूछी जाती है, सारथिसे नहीं पूछी जाती। इस बातको लेकर अर्जुनके मनमें जो रथीपनका भाव था, जिसके कारण वे भगवान्को यह आज्ञा दे रहे थे कि ' हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ', वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याणकी बात पूछनेके लिये अर्जुन भगवान्के शिष्य हो जाते हैं; और कहते हैं कि ' महाराज! मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा लेनेका पात्र हूँ, आप मेरे कल्याणकी बात कहिये'।शाधि मां त्वां प्रपन्नम् -- गुरु तो उपदेश दे देंगे, जिस मार्गका ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पूरा प्रकाश दे देंगे, पूरी बात बता देंगे, पर मार्गपर तो स्वयं शिष्यको ही चलना पड़ेगा। अपना कल्याण तो शिष्यको ही करना पड़ेगा। मैं तो ऐसा नहीं चाहता कि भगवान् उपदेश दें और मैं उसका अनुष्ठान करूँ; क्योंकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा। अतः अपने कल्याणकी जिम्मेवारी मैं अपनेपर क्यों रखूँ? गुरुपर ही क्यों न छोड़ दूँ! जैसे केवल माँके दूधपर ही निर्भर रहनेवाला बालक बीमार हो जाय, तो उसकी बीमारी दूर करनेके लिये ओषधि स्वयं माँको खानी पड़ती है, बालकको नहीं। इसी तरह मैं भी सर्वथा गुरुके ही शरण हो जाऊँ, गुरुपर ही निर्भर हो जाऊँ, तो मेरे कल्याणका पूरा दायित्व गुरुपर ही आ जायगा, स्वयं गुरुको ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा -- इस भावसे अर्जुन कहते हैं कि ' मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये'।यहाँ अर्जुन त्वां प्रपन्नम् पदोंसे भगवान्के शरण होनेकी बात तो कहते हैं, पर वास्तवमें सर्वथा शरण हुए नहीं हैं। अगर वे सर्वथा शरण हो जाते, तो फिर उनके द्वारा शाधि माम् मेरेको शिक्षा दीजिये ' यह कहना नहीं बनता; क्योंकि सर्वथा शरण होनेपर शिष्यका अपना कोई कर्तव्य रहता ही नहीं। दूसरी बात, आगे नवें श्लोकमें अर्जुन कहेंगे कि ' मैं युद्ध नहीं करूँगा ' -- न योत्स्ये। अर्जुनकी वह बात भी शरणागतिके विरुद्ध पड़ती है। कारण कि शरणागत होनेके बाद ' मैं युद्ध करूँगा या नहीं करूँगा; क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा ' -- यह बात रहती ही नहीं। उसको यह पता ही नहीं रहता कि शरण्य क्या करायेंगे और क्या नहीं करायेंगे। उसका तो यही एक भाव रहता है कि अब शरण्य जो करायेंगे, वही करूँगा। अर्जुनकी इस कमीको दूर करनेके लिये ही आगे चलकर भगवान्को मामेकं शरणं व्रज (18। 66) ' एक मेरी शरणमें आ जा ' -- ऐसा कहना पड़ा। फिर अर्जुनने भी करिष्ये वचनं तव (18। 73) ' आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ' -- ऐसा कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार किया।इस श्लोकमें अर्जुनने चार बातें कहीं हैं -- (1) कार्पण्यदोषो ... धर्मसम्मूढचेताः (2) यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (3) शिष्यस्तेऽहम् (4) शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। इनमेंसे पहली बातमें अर्जुन धर्मके विषयमें पूछते हैं, दूसरी बातमें अपने कल्याणके लिये प्रार्थना करते हैं, तीसरी बातमें शिष्य बन जाते हैं और चौथी बातमें शरणागत हो जाते हैं। अब इन चारों बातोंपर विचार किया जाय, तो पहली बातमें मनुष्य जिससे पूछता है, वह कहनेमें अथवा न कहनेमें स्वतन्त्र होता है। दूसरीमें, जिससे प्रार्थना करता है, उसके लिये कहना कर्तव्य हो जाता है। तीसरीमें, जिनका शिष्य बन जाता है, उन गुरुपर शिष्यको कल्याणका मार्ग बतानेका विशेष दायित्व आ जाता है। चौथीमें, जिसके शरणागत हो जाता है, उस शरण्यको शरणागतका उद्धार करना ही पड़ता है अर्थात् उसके उद्धारका उद्योग स्वयं शरण्यको करना पड़ता है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें अर्जुन भगवान्के शरणागत तो हो जाते हैं, पर उनके मनमें आता है कि भगवान्का तो युद्ध करानेका ही भाव है, पर मैं युद्ध करना अपने लिये धर्मयुक्त नहीं मानता हूँ। उन्होंने जैसे पहले उत्तिष्ठ कहकर युद्धके लिये आज्ञा दी, ऐसे ही वे अब भी युद्ध करनेकी आज्ञा दे देंगे। दूसरी बात, शायद मैं अपने हृदयके भावोंको भगवान्के सामने पूरी तरह नहीं रख पाया हूँ। इन बातोंको लेकर अर्जुन आगेके श्लोकमें युद्ध न करनेके पक्षमें अपने हृदयकी अवस्थाका स्पष्टरूपसे वर्णन करते हैं ।।2.7।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.7 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.7 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.7।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत्, अस्तु, तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार ।।2.7।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः ।।2.6 -- 2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
गुरूपसदनमिदानीं प्रतिपाद्यते, समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य विधिवद्गुरुमुपसन्नस्यैव विद्याग्रहणेऽधिकारात्। तदेवं भीष्मादिसंकटवशात्'व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति' इति श्रुतिसिद्धभिक्षाचर्येऽर्जुनस्याभिलाषं प्रदर्श्य विधिवदुपसत्तिमपि तत्संकटव्याजेनैव दर्शयति। यः स्वल्पामपि वित्तक्षतिं न क्षमते स कृपण इति लोके प्रसिद्धस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपुरुषार्थतया कृपणो भवति।'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः' इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं अनात्माध्यासवत्त्वं तन्निमित्तोऽस्मिञ्जन्मन्येत एव मदीयास्तेषु हतेषु किं जीवितेनेत्यभिनिवेशरूपो ममतालक्षणो दोषस्तेनोपहतस्तिरस्कृतः स्वभावः क्षात्रो युद्धोद्योगलक्षणो यस्य सः। तथा धर्मविषये निर्णायकप्रमाणादर्शनात्संमूढं किमेतेषां वधो धर्मः, किमेतत्परिपालनं धर्मः, तथा किं पृथ्वीपरिपालनं धर्मः, किंवा यथावस्थितोऽरण्यनिवासएव धर्मं इत्यादिसंशयैर्व्याप्तं चेतो यस्य स तथा।'न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः' इत्यत्र व्याख्यातमेतत्। एवंविधः सन्नहं त्वा त्वामिदानीं पृच्छामि। श्रेय इत्यनुषङ्गः। अतो यन्निश्चितमैकान्तिकमात्यन्तिकं च श्रेयः परमपुमर्थभूतं फलं स्यात्तन्मे मह्यं ब्रूहि। साधनानन्तरमवश्यंभावित्वमैकान्तिकत्वम्, जातस्याविनाश आत्यन्तिकत्वम्, यथा ह्यौषधे कृते कदाचिद्रोगानिवृत्तिर्न भवेदपि, जातापि च रोगनिवृत्तिः पुनरपि रोगोत्पत्त्या विनाश्यते, एवं कृतेऽपि यागे प्रतिबन्धवशात्स्वर्गो न भवेदपि, जातोऽपि स्वर्गो दुःखाक्रान्तो नश्यति चेति नैकान्तिकत्वमात्यन्तिकत्वं वा तयोः। तदुक्तम्'दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात्।।' इति'दृष्टवदानुश्रविकः सह्यविंशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। तद्विपरीतः श्रेयोन्व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।।' इति च। ननु त्वं मम सखा नतु शिष्योऽत आह -- 'शिष्येस्तेऽमिति'। त्वदनुशासनयोग्यत्वादहं तव शिष्य एव भवामि न सखा न्यूनज्ञानत्वात्। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय करुणया नत्वशिष्यत्वशङ्कयोपेक्षणीयोऽहमित्यर्थः। एतेन'तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं''भृगुर्वै वारुणिः। वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति' इत्यादिगुरूसत्तिप्रतिपादकः श्रुत्यर्थो दर्शितः ।।2.7।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.7।।

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