मूल स्लोकः
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
English translation by Swami Sivananda
2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them knows. It slays not, nor is It slain.
English commentary by Swami Sivananda
2.19 यः he who, एनम् this (Self), वेत्ति knows, हन्तारम् slayer, यः he who, च and, एनम् this, मन्यते thinks, हतम् slain, उभौ both, तौ those, न not, विजानीतः know, न not, अयम् this, हन्ति slays, न not, हन्यते is slain.Commentary -- The Self is non-doer (Akarta) and as It is immutable, It is neither the agent nor the object of the act of slaying. He who thinks "I slay" or "I am slain" with the body or the Ahamkara (ego), he does not really comprehend the true nature of the Self. The Self is indestructible. It exists in the three periods of time. It is Sat (Existence). When the body is destroyed, the Self is not destroyed. The body has to undergo change in any case. It is inevitable. But the Self is not at all affected by it. Verses 19, 20, 21, 23 and 24 speak of the immortality of the Self or Atman. (Cf.XVIII.17)
Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है ।।2.19।।
Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- य एनं (टिप्पणी प0 59) वेत्ति हन्तारम् -- जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (13। 29)। तात्पर्य यह हुआ है कि शरीरमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाले क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है।यश्चैनं मन्यते हतम् -- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है, वही मर सकता है।उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते -- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है। यह निर्विकाररूपसे नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये।अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है।सम्बन्ध -- यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है? इसके उत्तरमें कहते हैं -- ।।2.19।।
Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- य एनं प्रकृतं देहिनं वेत्ति विजानाति हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं यश्च एनम् अन्यो मन्यते हतं देहहननेन 'हतः अहम्' इति हननक्रियायाः कर्मभूतम्, तौ उभौ न विजानीतः न ज्ञातवन्तौ अविवेकेन आत्मानम्। 'हन्ता अहम् ' 'हतः अस्मि अहम् ' इति देहहननेन आत्मानमहंप्रत्ययविषयं यौ विजानीतः तौ आत्मस्वरूपानभिज्ञौ इत्यर्थः। यस्मात् न अयम् आत्मा हन्ति न हननक्रियायाः कर्ता भवति, न च हन्यते न च कर्म भवतीत्यर्थः, अविक्रियत्वात्।।कथमविक्रय आत्मेति द्वितीयो मन्त्रः -- ।।2.19।।
English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.19 But the ideas that you have, 'Bhisma and others are neing killed by me in war; I am surely their killer' -- this idea of yours is false. How? Yah, he who; vetti, thinks; of enam, this One, the embodied One under consideration; as hantaram, the killer, the agent of the act of killing; ca, and; yah, he who, the other who; manyate, thinks; of enam, this One; as hatam, the killed -- (who thinks) 'When the body is killed, I am myself killed; I become the object of the act of killing'; ubhau tau, both of them; owing to non-discrimination, na, do not; vijanitah, know the Self which is the subject of the consciousness of 'I'. The meaning is: On the killing of the body, he who thinks of the Self (-- the content of the consciousness of 'I' --) The Ast. omits this phrase from the precedig sentence and includes it in this place. The A.A. has this phrase in both the places.-Tr. as 'I am the killer', and he who thinks, 'I have been killed', both of them are ignorant of the nature of the Self. For, ayam, this Self; owing to Its changelessness, na hanti, does not kill, does not become the agent of the act of killing; na hanyate, nor is It killed, i.e. It does not become the object (of the act of killing).The second verse is to show how the Self is changeless:
Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो तू मानता है कि 'मेरेद्वारा युद्धमें भीष्मादि मारे जायँगे, मैं ही उनका मारनेवाला हूँ' -- यह तेरी बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे? -- जिसका वर्णन ऊपरसे आ रहा है, इस आत्माको जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रियाका कर्ता मानता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्माको देहके नाशसे 'मैं नष्ट हो गया' -- ऐसे नष्ट हुआ मानता है -- अर्थात् हननक्रियाका कर्म मानता है। वे दोनों ही अहंप्रत्ययके विषयभूत आत्माको अविवेकके कारण नहीं जानते। अभिप्राय यह कि जो शरीरके मरनेसे 'आत्माको मैं मारनेवाला हूँ' 'मैं मारा गया हूँ' -- इस प्रकार जानते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं। क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होनेके कारण न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हननक्रियाका कर्ता होता है और न कर्म होता है ।।2.19।।
Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एनम् उक्तस्वभावम् आत्मानं प्रतिहन्तारं हननहेतुकम् अपि यो मन्यते यः च एनं केन अपि हेतुना हतं मन्यते उभौ तौ न विजानीतः। उक्तैः हेतुभिः अस्य नित्यत्वाद् एव अयं हननहेतुः न भवति; अत एव च अयम् आत्मा न हन्यते। हन्तिधातुः अपि आत्मकर्मकःशरीरवियोगकरणवाची।'न हिंस्यात् सर्वा भूतानि''ब्राह्मणो न हन्तव्यः' (क0 स्मृ0 8।2) इत्यादीनि अपि शास्त्राणि अविहितशरीरवियोगकरणविषयाणि ।।2.19।।
English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.19 With regard to "This" viz., the self, whose nature has been described above, he who thinks of It as the slayer, i.e., as the cause of slaying, and he who thinks 'This' (self) as slain by some cause or other --- both of them do not know. As this self is eternal for the reasons mentioned above, no possible cause of destruction can slay It and for the same reason, It cannot be slain. Though the root 'han' (to slay) has the self for its object, it signifies causing the separation of the body from the self and not destruction of the self. Scriptural texts like 'You shall not cause injury to beings' and 'The Brahmana shall not be killed'? (K. Sm. 8.2) indicate unsanctioned actions, causing separation of the body from the self. In the above quotes, slaughter in an ethical sense is referred to, while the text refers to killing or separating the self from the body in a metaphsyical sense. This is made explicit in the following verse.
Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
आत्मनो हन्तिकर्तृकर्मत्वज्ञानिनं निन्दति। य एनमिति हन्तेः सावयवशरीरवियोगकरणवाचित्वान्नायमात्मा हन्ति न हन्यते।'न हिंस्यात् सर्वाभूतानि' इत्यादिरपि शरीरदृष्ट्यभिप्रायेणोपपद्यते ।।2.19।।
Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वेयं'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्' इत्यादिना भीष्मादिबन्धुविच्छेदनिबन्धने शोकेऽपनीतेऽपि तद्वधकर्तृत्वनिबन्धनस्य पापस्य नास्ति प्रतीकारः। नहि यत्र शोको नास्ति तत्र पापं नास्तीति नियमः, द्वेष्यब्राह्मणवधे शोकाविषये पापाभावप्रसङ्गात्। अतोऽहं कर्ता त्वं प्रेरक इति द्वयोरपि हिंसानिमित्तपातकापत्तेरयुक्तमिदं वचनं'तस्माद्युध्यस्व भारत' इत्याशङ्क्य काठकपठितयर्चा परिहरति भगवान् -- एनं प्रकृतं देहिनमदृश्यत्वादिगुणकं यो हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं वेत्ति अहमस्य हन्तेति विजानाति, यश्चान्य एनं मन्यते हतं हननक्रियायाः कर्मभूतं देहहननेन हतोऽहमिति विजानाति, तावुभौ देहाभिमानित्वादेनमविकारिणमकारकस्वभावमात्मानं न विजानीतो न विवेकेन जानीतः शास्त्रात्। कस्मात्। यस्मान्नायं हन्ति न हन्यते। कर्ता कर्म च न भवतीत्यर्थः। अत्र य एनं वेत्ति हन्तारं हतं चेत्येतावति वक्तव्ये पदानामावृत्तिर्वाक्यालंकारार्था। अथवा य एनं वेत्ति हन्तारं तार्किकादिरात्मनः कर्तृत्वाभ्युपगमात्, तथा यश्चैनं मन्यते हतं चार्वाकादिरात्मनो विनाशित्वाभ्युपगमात्, तावुभौ न विजानीत इति योज्यम्। वादिभेदख्यापनाय पृथगुपन्यासः। अतिशूरातिकातरविषयतया वा पृथगुपदेशः।'हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्' इति पूर्वार्धे श्रौतः पाठः ।।2.19।।
Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
व्यवहारस्तु भ्रान्त इत्याह -- 'य एनमिति'। कुतः? उक्तहेतुभ्यो नायं हन्ति, न हन्यते। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया। स हि बिम्बक्रिययैव क्रियावान्। "ध्यायतीव" बृ.उ.4।3।7 इति श्रुतेश्च ।।2.19।।
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