रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-27


मूल स्लोकः

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।




English translation by Swami Sivananda
3.27 All actions are wrought in all cases by the qualities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks, "I am the doer."


English commentary by Swami Sivananda
3.27 प्रकृतेः of nature, क्रियमाणानि are performed, गुणैः by the qualities, कर्माणि actions, सर्वशः in all cases, अहङ्कारविमूढात्मा one whose mind is deluded by egosim, कर्ता doer, अहम् I, इति thus, मन्यते thinks.Commentary: Prakriti or Pradhana or Nature is that state in which the three Gunas, viz., Sattva, Rajas and Tamas exist in a state of equilibrium. When this equilibrium is disturbed, creation begins; body, senses, mind, etc., are formed. The man who is deluded by egoism identifies the Self with the body, mind, the life force and the senses and ascribes to the Self all the attributes of the body and the senses. He, therefore, thinks through ignorance, "I am the doer." In reality the Gunas of Nature perform all actions. (Cf.III.29;V.9;IX.9,10;XIII.21,24,30,32;XVIII.13,14).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है ।।3.27।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः -- जिस समष्टि शक्तिसे शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, गङ्गा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता है, उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं। परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर, अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है -- एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ; जैसे -- शरीरका बनना, भोजनका पचना इत्यादि; और दूसरी, ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ; जैसे -- देखना, बोलना, भोजन करना इत्यादि। ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपनेद्वारा की जानेवाली मान लेता है।प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों-(सत्त्व, रज और तम-) का कार्य होनेसे बुद्धि, अहंकार, मन, पञ्चमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय -- ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूपके द्वारा नहीं।अहंकारविमूढात्मा -- ' अहंकार ' अन्तःकरणकी एक वृत्ति है। ' स्वयं' (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है। परन्तु भूलसे ' स्वयं ' को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है।जैसे शरीर इदम् (यह) है, ऐसे ही अहंकार भी इदम् (यह) है। इदम् (यह) कभी अहम् (मैं) नहीं हो सकता -- यह सिद्धान्त है। जब मनुष्य भूलसे इदम् को अहम् अर्थात् यह को मैं मान लेता है, तब वह अहंकारविमूढात्मा कहलाता है। यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता; क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है। माना हुआ अहंकार मिटता है -- अस्वीकृतिसे अर्थात् ' न मानने ' से।विशेष बातअहम् दो प्रकारका होता है -- (1) वास्तविक (आधाररूप) अहम् (टिप्पणी प0 161); जैसे -- ' मैं हूँ ' (अपनी सत्तामात्र)।(2) अवास्तविक (माना हुआ) अहम्; जैसे -- ' मैं शरीर हूँ'।' वास्तविक अहम् ' स्वाभाविक एवं नित्य और ' अवास्तविक अहम्' अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है। अतः ' वास्तविक अहम्' विस्मृत तो हो सकता है, पर मिट नहीं सकता; और ' अवास्तविक अहम्' प्रतीत तो हो सकता है, पर टिक नहीं सकता। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह ' वास्तविक अहम्'-(अपने स्वरूप-) को विस्मृत करके ' अवास्तविक अहम्'-(मैं शरीर हूँ-) को ही सत्य मान लेता है।कर्ताहमिति मन्यते -- यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं, तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है। कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है। अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिमें 'मैं'-पन कर लेता है और उन-(शरीरादि) की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है। यह विपरीत मान्यता मनुष्यने स्वयं की है, इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है। इसको मिटानेका उपाय है -- इसे विवेक-विचारपूर्वक न मानना; क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है।एक ' करना ' होता है, और एक ' न करना'। जैसे ' करना ' क्रिया है, ऐसे ही ' न करना' भी क्रिया है। सोना, जागना, बैठना, चलना, समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं। क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है। ' स्वयं'-(चेतन स्वरूप-) में करना और न करना -- दोनों ही नहीं हैं; क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है। वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है। यदि ' स्वयं ' में भी क्रिया होती, तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूप क्रियाओं) का ज्ञाता कैसे होता? करना और न करना वहाँ होता है, जहाँ ' अहम् ' (मैं) रहता है। ' अहम् ' न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। करना और न करना -- दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं, उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप) में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु ' अहम्' के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्रकृति-(जड-) से माना हुआ सम्बन्ध ही ' अहम्' कहलाता है।विशेष बातजिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है, उसी जातिका समुद्र है, उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है। मनुष्य संसारको तो ' मैं' नहीं मानता, पर भूलसे शरीरको ' मैं ' मान लेता है।जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरको ' मैं ' (अपना स्वरूप) मान लेता है, तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं; जैसे -- मुझे स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ मिल जायँ, लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा आदर-सम्मान करें, मेरे अनुकूल चलें इत्यादि। उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ, अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ -- अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ।साधनकालमें ' मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ ' -- ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है, तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था, ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है -- यह सिद्धान्त है। इसी बातको भगवान्ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्लोकमें -- नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंमें मन्येत पदसे प्रकट किया है कि ' मैं कर्ता हूँ ' -- इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये ' मैं कुछ भी नहीं करता ' -- ऐसी वास्तविक मान्यता करना होगी।' मैं शरीर हूँ; मैं कर्ता हूँ ' आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है; फिर ' मैं शरीर नहीं हूँ; मैं अकर्ता हूँ' आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी? और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी? ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- प्रकृतेः प्रकृतिः प्रधानं सत्त्वरजस्तमसां गुणानां साम्यावस्था तस्याः प्रकृतेः गुणैः विकारैः कार्यकरणरूपैः क्रियमाणानि कर्माणि लौकिकानि शास्त्रीयाणि च सर्वशः सर्वप्रकारैः अहंकारविमूढात्मा कार्यकरणसंघातात्मप्रत्ययः अहंकारः तेन विविधं नानाविधं मूढः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं कार्यकरणधर्मा कार्यकरणाभिमानी अविद्यया कर्माणि आत्मनि मन्यमानः तत्तत्कर्मणाम् अहं कर्ता इति मन्यते।।यः पुनर्विद्वान् -- ।।3.27।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.27 Karmani kriyamanani, while actions, secular and scriptural, are being done; sarvasah, in ever way; gunaih, by the gunas, (i.e.) by the modifications in the form of body and organs; (born) prakrteh, of Nature-Nature, (otherwise known as) Pradhana Pradhana, Maya, the Power of God., being the state of equilibrium of the three qualities of sattva, rajas and tamas; ahankara-vimudha-atma, one who is deluded by egoism; manyate, thinks; iti, thus; 'Aham karta, I am the doer.'Ahankara is self-identification with the aggregate of body and organs. He whose atma, mind, is vimudham, diluded in diverse ways, by that (ahankara) is ahankara-vimudha-atma. He who imagines the characteristics of the body and organs to be his own, who has self-identification with the body and the organs, and who, through ignorance, believes the activities to be his own-, he thinks, 'I am the doer of those diverse activities.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मोंमें किस प्रकार आसक्त होता है? सो कहते हैं -- सत्त्व, रजस् और तमस् -- इन तीनों गुणोंकी जो साम्यावस्था है, उसका नाम प्रधान या प्रकृति है, उस प्रकृतिके गुणोंसे अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारोंसे लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परंतु अहंकारविमूढात्मा -- कार्य और करणके संघातरूप शरीरमें आत्मभावकी प्रतीतिका नाम अहंकार है, उस अहंकारसे जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकारसे मोहित हो चुका है ऐसा -- देहेन्द्रियके धर्मको अपना धर्म माननेवाला, देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृतिके कर्मोंको अपनेमें मानता हुआ उन-उन कर्मोंका 'मैं कर्ता हूँ ' ऐसा मान बैठता है ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
प्रकृतेः गुणैः सत्त्वादिभिः स्वानुरूपं क्रियमाणानि कर्माणि प्रति अहंकारविमूढात्मा अहं कर्ता इति मन्यते। अहंकारेण विमूढ आत्मा यस्य असौ अहंकारविमूढात्मा; अहंकारो नाम अनहमर्थे प्रकृतौ अहम् इति अभिमानः, तेन अज्ञातात्मस्वरूपो गुणकर्मसु अहं कर्ता इति मन्यते इत्यर्थः ।।3.27।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.27 It is the Gunas of Prakrti like Sattva, Rajas etc., that perform all the activities appropriate to them. But the man, whose nature is deluded by his Ahankara, thinks, 'I am the doer of all these actions.' Ahankara is the mistaken conception of 'I' applied to the workings of Prakrti which is not the 'I'. The meaning is that it is because of this (Ahankara), that one who is ignorant of the real nature of the self, thinks, 'I am the doer' with regard to the activities that are really being done by the Gunas of Prakrti.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कर्म कुर्वतोर्विद्वदविदुषोर्विशेषं स्पष्टं सन्दर्शयति -- प्रकृतेरिति द्वाभ्याम्। प्रकृते योगे साङ्खयरीत्या विशेषदर्शनमिति नाप्रकृतप्रसङ्गः। तथाहि ब्रह्मवादिसाङ्ख्ये जगतः कर्त्ता भोक्ता सर्वधर्माश्रयः पुरुषोत्तम एवांशतोऽक्षरः कालः प्रकृतिः पुरुष आत्मा भवति "स (इममेव) आत्मानं द्वेधापातयत् (ततः) पतिश्च पत्नी चाभवत्" बृ.उ.1।4।3 इति श्रुतेः। तत्र कर्त्री प्रकृतिस्तत्संसृष्टतया पुरुषश्च भोक्ता। वस्तुतः पुष्करपलाशवत्प्राकृतधर्मैरवशस्तथापि तद्गुणैः परिणतगुणैरिन्द्रियैरिन्द्रियनिष्ठैर्वा गुणैः क्रियमाणानि कर्मामि कर्त्ताऽहं पुरुष इति मन्यते विपरीतमतिः। गुणेः कर्माणि क्रियन्ते, न केवलेनात्मनेति। विभागतत्त्ववित्तु न सज्जते। इन्द्रियनिष्ठा गुणा विषयगुणेषु वर्तन्ते इति मननात्साङ्ख्ययोगयोरेक एवार्थः ।।3.27 -- 3.28।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
विद्वदविदुषोः कर्मानुष्ठानसाम्येऽपि कर्तृत्वाभिमानतदभावाभ्यां विशेषं दर्शयन्सक्ताः कर्मणीति (25) श्लोकार्थं विवृणोति द्वाभ्याम् -- प्रकृतिर्माया सत्त्वरजस्तमोगुणमयी मिथ्याज्ञानात्मिका पारमेश्वरी शक्तिः।'मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्' इति श्रुतेः। तस्याः प्रकृतेर्गुणैर्विकारैः कार्यकारणरूपैः क्रियमाणानि लौकिकानि वैदिकानि च कर्माणि सर्वशः सर्वप्रकारैरहंकारेण कार्यकारणसंघातात्मप्रत्ययेन विमूढः स्वरूपविवेकासमर्थ आत्मान्तःकरणं यस्य सोऽहंकारविमूढात्माऽनात्मन्यात्माभिमानी, तानि कर्माणि कर्ताहमिति करोम्यहमिति मन्यते कर्त्रध्यासेन। कर्ताहमिति तृन्प्रत्ययः। तेन'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्' इति षष्ठीप्रतिषेधः ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
विद्वदविदुषोः कर्मभेदमाह -- 'प्रकृतेरिति'। प्रकृतेर्गुणैरिन्द्रियादिभिः। प्रकृतिमपेक्ष्य गुणभूतानि हि तानि तत्सम्बन्धीनि च। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया ।।3.27।।

BhagvatGita-03-26


मूल स्लोकः

न बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3.26।।




English translation by Swami Sivananda
3.26 Let no wise man unsettle the mind of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion.


English commentary by Swami Sivananda
3.26 न not, बुद्धिभेदम् unsettlement in the mind, जनयेत् should produce, अज्ञानाम् of the ignorant, कर्मसङ्गिनाम् of the persons attached to actions, जोषयेत् should engage, सर्वकर्माणि all actions, विद्वान् the wise, युक्तः balanced, समाचरन् performing.Commentary: An ignorant may says to himelf, "I shall do this action and thereby enjoy its fruit." A wise man should not unsettle his belief. On the contrary he himself should set an example by performing his duties diligently but without attachment. The wise man should also persuade the ignorant never to neglect their duties. If need be, he should place before them in vivid colours the happiness they would enjoy here and hereafter by discharging such duties. When their hearts get purified in course of time, the wise man could sow the seeds of Karma Yoga (selfless service without deire) in them.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये ।।3.25 -- 3.26।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो तथा कुर्वन्ति भारत -- जिन मनुष्योंकी शास्त्र, शास्त्र-पद्धति और शास्त्र-विहित शुभकर्मोंपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है -- इस बातपर पूरा विश्वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ सक्ताः, अविद्वांसः पद आये हैं। शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं।ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी। भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान्के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् -- जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ असक्तः, विद्वान् पद आये हैं (टिप्पणी प0 158)।बीसवें श्लोकमें लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कहकर फिर इक्कीसवें श्लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ लोकसंग्रहं चिकीर्षुः पदोंसे कहा गया है।श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है। उसके अन्तःकरणमें ' मैं लोकहित करता हूँ ' -- ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी ' लोकसंग्रह ' पदमें आये ' लोक ' शब्दके अन्तर्गत आते हैं।दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः-स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।इस श्लोकमें यथा और तथा पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो? -- इस भावसे कर्तव्य-कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है।अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।इक्कीसवें श्लोकमें तो विद्वान्को आदर्श बताया गया था, पर यहाँ उसे अनुयायी बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोगसंग्रह होता है। जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था।जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान्के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंको ' यह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है ' -- ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे। मनुष्यके निष्कामभावोंका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है -- यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान्के भावों, आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है।विशेष बातमनुष्य जबतक निष्कामभावपूर्वक विहित-कर्म नहीं करता, तबतक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता। वह जबतक अपने लिये कर्म करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसका ' करना ' समाप्त नहीं होता। कारण कि ' स्वयं ' नित्य रहनेवाला है और कर्म एवं उसका फल नष्ट होनेवाला है। अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये स्वार्थ-त्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये) कर्तव्य-कर्म करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग-(निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म-) के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं -- इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।वास्तवमें महत्ता पदार्थकी नहीं, प्रत्युत आचरण-(उसके उपयोग-) की ही होती है। आचरणकी महत्ता भी तब है, जब अन्तःकरणमें पदार्थकी महत्ता न हो। कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है; केवल उपयोगके लिये ही व्यक्तिगत है। पदार्थको व्यक्तिगत माननेसे ही परहितके लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है। कोई भी पदार्थ या क्रिया बन्धनकारक नहीं, उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है।विद्वान् पुरुषोंसे भी लोकसंग्रहके लिये सब कर्म होते हैं। परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमें ' मैं लोगसंग्रह कर रहा हूँ ' -- यह अभिमान नहीं रहता। कारण यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विद्या, योग्यता, पद आदि सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं। संसारसे मिली सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देना ईमानदारी है। उस सामग्रीको बहुत सच्चाईसे, ईमानदारीसे संसारके अर्पण कर देना है। यह अर्पण करना कोई बड़ा काम नहीं है। जैसे किसीने हमारे पास धरोहररूपसे रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगनेपर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये, तो कौन-सा बड़ा काम किया? हाँ, हमारा दायित्व समाप्त हो गया, हम ऋणमुक्त हो गये। इसी प्रकार संसारकी वस्तु संसारके अर्पण कर देनेसे हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है, हम ऋणमुक्त हो जाते हैं -- जन्म-मरणके बन्धनसे सदाके लिये छूट जाते हैं। इसलिये सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है।न बुद्धिभेदं ... विद्वानयुक्तः समाचरन् -- पचीसवें श्लोकमें असक्तः, विद्वान् पदोंसे जिसका वर्णन हुआ है, उसी आसक्तिरहित विद्वान्को यहाँ युक्तः, विद्वान् पदोंसे कहा गया है।जिसके अन्तःकरणमें स्वतः-स्वाभाविक समता है, जिसकी स्थिति निर्विकार है, जिसकी समस्त इन्द्रियाँ अच्छी तरह जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष ही युक्तः, विद्वान् कहलाता है (गीता 6। 8)।पीछेके (पचीसवें) श्लोकमें सक्ताः, अविद्वांसः पदोंसे जिनका वर्णन हुआ है, उन्हीं शास्त्रविहित शुभकर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी पुरुषोंको यहाँ कर्मसङ्गिनाम्, अज्ञानम् पदोंसे कहा गया है।शास्त्रविहित कर्मोंको अपने लिये (सुख-भोग, मान, बड़ाई आदिकी प्राप्तिके लिये) करनेके कारण इन पुरुषोंको ' कर्मसङ्गी ' और ' अज्ञानी ' कहा गया है।श्रेष्ठ पुरुषपर विशेष जिम्मेवारी होती है; क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं। इसलिये भगवान् उपर्युक्त पदोंसे विद्वानको आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषोंका वर्तमान स्थितिसे पतन हो जाय। अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिसे उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना) ही उनमें ' बुद्धिभेद ' उत्पन्न करना है। अतः विद्वान्को सबके हितका भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार शास्त्रविहत शुभ-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती रहे। समाज एवं परिवारके मुख्य व्यक्तियोंपर भी यही बात लागू होती है। उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये, जिससे समाज और परिवारपर अच्छा प्रभाव पड़े।बुद्धिभेद पैदा करनेके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -- 1-'कर्मोंमें क्या रखा है? कर्मोंसे जो जीव बँधता है; कर्म निकृष्ट हैं; कर्म छोड़कर ज्ञानमें लगना चाहिये' आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकारके अपने आचरणों और वचनोंसे दूसरोंमें कर्तव्य-कर्मोंके प्रति अश्रद्धा-अविश्वास उत्पन्न करना।2- ' जहाँ देखो, वहीं स्वार्थ है; स्वार्थके बिना कोई रह नहीं सकता; सभी स्वार्थके लिये कर्म करते हैं; मनुष्य कोई कर्म करे तो फलकी इच्छा रहती ही है; फलकी इच्छा न रहे तो सभी कर्म करेगा ही क्यों ' आदि उपदेश देना।3- ' फलकी इच्छा रखकर (अपने लिये) कर्म करनेसे (फल भोगनेके लिये) बार-बार जन्म लेना पड़ता है ' आदि उपदेश देना। इस प्रकारके उपदेशोंसे कामनावाले पुरुषोंका कर्मफलपर विश्वास नहीं रहता। फलस्वरूप उनकी (फलमें) आसक्ति तो छूटती नहीं; शुभ-कर्म जरूर छूट जाते हैं। बन्धनका कारण आसक्ति ही है, कर्म नहीं। इस प्रकार लोगोंमें बुद्धि-भेद उत्पन्न न करके तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार स्वयं कर्तव्य-कर्म करे और दूसरोंसे भी वैसे ही करवाये। उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनोंके द्वारा अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थितिसे क्रमशः ऊँचे उठाये। जिन शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंको अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं, उनकी वह विशेषरूपसे प्रशंसा करे और उनके कर्मोंमें होनेवाली त्रुटियोंसे उन्हें अवगत कराये, जिससे वे उन त्रुटियोंको दूर करके साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म कर सकें। इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ, दान, पूजा, पाठ आदि शुभ-कर्म करना तो बहुत अच्छा है, पर उन कर्मोंमें फलकी इच्छा रखना उचित नहीं; क्योंकि हीरेको कंकड़-पत्थरोंके बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सकामभावका त्याग करके शुभ-कर्म करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है। इस प्रकार सकामभावसे निष्कामभावकी ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है।इसी तरह उपासनाके विषयमें भी तत्त्वज्ञ पुरुषको बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये। जैसे, प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नाम-जप करते समय भगवान्में मन नहीं लगा तो नाम-जप करना व्यर्थ है। परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषको ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नाम-जप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान्के प्रति कुछ-न-कुछ भाव रहनेसे ही नाम-जप होता है। भावके बिना नाम-जपमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। अतः नाम-जपका किसी भी अवस्थामें त्याग नहीं करना चाहिये। जो यह कहा गया है कि मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगनेसे यह ' सुमिरन ' (स्मरण) नहीं है, ' जप ' तो है ही। हाँ, मन लगाकर ध्यानपूर्वक नाम-जप करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है।कोई भी मनुष्य सर्वथा गुण-रहित नहीं होता। उसमें कुछ-न-कुछ गुण रहते ही हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषको चाहिये कि अगर किसी व्यक्तिको (उसकी उन्नतिके लिये) कोई शिक्षा देनी हो, कोई बात समझानी हो, तो उस व्यक्तिकी निन्दा या अपमान न करके उसके गुणोंकी प्रशंसा करे। गुणोंकी प्रसंशा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी, उस शिक्षाका उसपर विशेष असर पड़ेगा। समाज और परिवारके मुख्य व्यक्तियोंको भी इसी रीतिसे दूसरोंको शिक्षा देनी चाहिये।समाचरन् और जोषयेत् पदोंसे भगवान् विद्वान्को दो आज्ञाएँ देते हैं -- (1) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मोंको अच्छी तरह करे और (2) कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवाये। लोगोंको दिखानेके लिये कर्म करना ' दम्भ ' है, जो पतन करनेवाली आसुरी-सम्पत्तिका लक्षण है (गीता 16। 4)। अतः भगवान् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं, प्रत्युत लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि कर्म करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी वह समस्त कर्तव्य-कर्मोंको सुचारुरूसे करता रहे, जिससे कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंकी निष्काम-कर्मोंके प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत् हो और वे भी निष्कामभावसे कर्म करने लगें। तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषके आसक्तिरहित आचरणोंको देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेकी चेष्टा करने लगेंगे।इस प्रकार ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंको आदरपूर्वक समझाकर उनसे निषिद्धकर्मोंका स्वरूपसे (सर्वथा) त्याग करवाये, और विहित-कर्मोंमेंसे सकाम-भावका त्याग करनेकी प्रेरणा करे।सम्बन्ध -- ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।3.26।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- बुद्धेर्भेदः बुद्धिभेदः 'मया इदं कर्तव्यं भोक्तव्यं चास्य कर्मणः फलम्' इति निश्चयरूपाया बुद्धेः भेदनं चालनं बुद्धिभेदः तं न जनयेत् न उत्पादयेत् अज्ञानाम् अविवेकिनां कर्मसङ्गिनां कर्मणि आसक्तानां आसङ्गवताम्। किं नु कुर्यात्? जोषयेत् कारयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् स्वयं तदेव अविदुषां कर्म युक्तः अभियुक्तः समाचरन्।।अविद्वानज्ञः कथं कर्मसु सज्जते इत्याह -- ।।3.26।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.26 Vidvan the enlightened man; na janayet, should not create; buddhi-bhedam, disturbance in the beliefs-disturbance in the firm belief, 'This has to be done; and the result of this action is to be reaped by me'; ajnanam, of the ignorant, of the non-discriminating one; karma-sanginam, who are attached to work. But what should he do? Himself samacaran, working, performing those very activities of the ignorant; yuktah, while remaining diligent; josayet, he should make them do; sarva-karmani, all the duties.How does an anillumined, ignorant person be come attached to actions? In reply the Lord says:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
इस प्रकार लोकसंग्रह करनेकी इच्छावाले मुझ परमात्माका या दूसरे आत्मज्ञानीका, लोकसंग्रहको छोड़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं रह गया है। अतः उस आत्मवेत्ताके लिये यह उपदेश किया जाता है -- बुद्धिको विचलित करनेका नाम बुद्धिभेद है, ( ज्ञानीको चाहिये कि ) कर्मोंमें आसक्तिवाले -- विवेकरहित अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भेद उत्पन्न न करे अर्थात् 'मेरा यह कर्तव्य है, इस कर्मका फल मुझे भोगना है' इस प्रकार जो उनकी निश्चितरूपा बुद्धि बनी हुई है, उसको विचलित करना बुद्धिभेद करना है सो न करे। तो फिर क्या करे? समाहितचित्त विद्वान् स्वयं अज्ञानियोंके ही ( सदृश ) उन कर्मोंका ( शास्त्रानुकूल ) आचरण करता हुआ उनसे सब कर्म करावे ।।3.26।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अज्ञानाम् आत्मन्यकृत्स्नवित्तया ज्ञानयोगोपादानाशक्तानां मुमुक्षूणां कर्मसङ्गिनाम् अनादिकर्मवासनया कर्मणि एव नियतत्वेन कर्मयोगाधिकारिणां'कर्मयोगाद् अन्यथात्मावलोकनम् अस्ति' इति न बुद्धिभेदं जनयेत्। किं तर्हि? आत्मनि कृत्स्नवित्तया ज्ञानयोगशक्तः अपि पूर्वोक्तरीत्या'कर्मयोग एव ज्ञानयोगनिरपेक्ष आत्मावलोकनसाधनम्' इति बुद्ध्या युक्तः कर्म एव आचरन् सर्वकर्मसु अकृत्स्नविदां प्रीतिं जनयेत्।अथ कर्मयोगम् अनुतिष्ठतो विदुषः अविदुषश्च विशेषं प्रदर्शयन् कर्मयोगापेक्षितम् आत्मनः अकर्तृत्वानुसन्धानप्रकारम् उपदिशति -- ।।3.26।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.26 Do not bewilder the minds of ignorant aspirants by saying that there is, besides Karma Yoga, another way to the vision of the self. They cannot practise Jnana Yoga on account of their incomplete knowledge of the self, and attachment to action. They are qualified for Karma Yoga because of their being fit only for activity on account of the subtle impressions of their beginningless Karma. What then follows from this? It is this: Even though one is qualified for Jnana Yoga because of the complete knowledge of the self, one should do work, holding the view as said previously, that Karma Yoga by itself without Jnana Yoga is an independent means for the vision of the self. He should thus generate love for all types of activity among those who do not know the complete truth.Sri Krsna declares (in the verses 27 to 30) the way in which the self is to be contemplated on as not being an agent as required by Karma Yoga, after demonstrating the difference between the enlightened and unenlightened among those practising Karma Yoga.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
नन्वज्ञेषु तु सक्ततया कर्मनिष्ठेषु कृपया साङ्ख्यप्रकारभेद उपदेष्टुं युक्तो विदुषा; नहिनहीत्याह -- न बुद्धिभेदमिति। प्रकारभेदोपदेशे तेषां बुद्धिभेद एव भवति, फलादिसङ्गितया ज्ञातत्वात्। अतो जोषयेत्प्रीणयेत्सेवयेच्च स्वयं कृत्वा परिसङ्खयातात्पर्येण शनैः शनैः शिक्षयेत्। अन्यथा बुद्धिभेदः ।।3.26।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु कर्मानुष्ठानेनैव लोकसंग्रहः कर्तव्यो नतु तत्त्वज्ञानोपदेशेनेति को हेतुरत आह -- अज्ञानामविवेकिनां कर्तृत्वाभिमानेन फलाभिसंधिना च कर्मसङ्गिनां कर्मण्यभिनिविष्टानां या बुद्धिरहमेतत्कर्म करिष्ये एतत्फलं च भोक्ष्य इति तस्या भेदं विचालनं अकर्त्रात्मोपदेशेन न कुर्यात्, किंतु युक्तोऽवहितः सन् विद्वान् लोकसंग्रहं चिकीर्षुः अविद्वदधिकारिकाणि सर्वकर्माणि समाचरन् तेषां श्रद्धामुत्पाद्य जोषयेत् प्रीत्या सेवयेत्। अनधिकारिणामुपदेशेनं बुद्धिविचालने कृते कर्मसु श्रद्धानिवृत्तेर्ज्ञानस्य चानुत्पत्तेरुभयभ्रष्टत्वं स्यात्। तथाचोक्तं'अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्। महानिरयजालेषु स तेन विनियोजितः।।' इति ।।3.26।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.26।।